Text Practice Mode
जीवन दर्शन
created Jul 28th 2017, 06:40 by GAURAVlogs
0
501 words
15 completed
0
Rating visible after 3 or more votes
00:00
सात दशक के बाद अब लोकतंत्र को परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं लगती। भारतीय लोकतंत्रीय व्यवस्था में कई व्यवधान आए यहां तक 1975-77 के बीच आंतरिक आपातकाल भी लगा जिसमें व्यवस्था का पहिया थम सा गया। उस दौर में हम उबर भी गए। देश के अनन्य भागों में स्थानीयता वा पृथकतावाद की हवा भी चली। इन सब बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद हर पांच वर्ष में लोकतांत्रिक व्यवस्था और मजबूत होती गई। आपातकाल के बाद दूसरी सबसे बडी घटना बाबरी मस्जिद के ढांचे को ध्वस्त करने को लेकर हुई जिसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। ऐसा लगता है कि हम पुन: आजादी के ठीक बाद की त्रासद स्थिति में पहुंच गए हैा। बडी चुनौती धर्म-संप्रदाय की राजनीति के घालमेंल के रूप में उबर कर आई है। यह कहां जाकर रूकेगी। कहना कठिन है। धर्म-संप्रदाय और राजनीति का कोई मेलजोल नहीं है। भारतीय संविधान स्पष्टत: पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना करता है इस प्रसंग पर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी। कतिपय महानुभावों ने धर्म प्रधानराज्य की वकालत की थी। और यह कहा भी था कि इस देश की राज्य व्यवस्था धर्मविहीन नहीं होनी चाहिए। संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इस बात को स्वीकार किया था कि भारत जैसे विविध धर्म-संप्रदाय वाले देश की राज व्यवस्था को किसी एक धर्म से जोडना उचित नहीं होगा। संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहब ने कहा कि सेक्युलरिज्म का अर्थ यह नहीं है कि भारत धर्म विरोधी है इसका अर्थ यह है कि भारत का कोई धर्म नहीं है,किसी एक धर्म की तुलना में दूसरे को वरीयता देगा। और किसी भी नागरिक से धर्म के कारण भेदभाव किया जाएगा। बल्कि इसका अर्थ यह है कि सभी नागरिक संविधान के समक्ष बराबर है। किसी के साथ कोई भी भेदभाव नहीं होगा।इस राष्ट्र की एकता और अखण्डता, अर्थो में सुरक्षा भी इसी बात पर निर्भर है कि सभी नागरिकों को समान दृष्टि से देखा जाए। इन दिनों एक जबरदस्त स्वर उभर रहा है जो यह कहता है कि राष्ट्र हिन्दुओं का है। इस तरह की सोच से देश की एकता व अखण्डता को खतरा हो सकता है। हमारी सुदृढ़ लोकतंत्रकी जड़ों को पलीता वे ही लोग लगा रहे है जो इसके संचालक हैं। परिपक्व लोकतंत्र की शासक एवं संचालकों में कहीं अधिक परिपक्वता और गंभीर सोच की आवश्कता है। उन्हें, परिवार, जाति, संप्रदाय और अन्य पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर निर्णय लेना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो इस देश का मतदाता उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा।
‘’वह मनुष्य जिसने अपने मन पर अधिकार कर लिया है दूसरे मनुष्यों के मन पर भी अधिकार करने का सामर्थ्य रखता है। नीतिमान और पवित्र आत्मा वाले लोग ही अपने ऊपर अधिकार कर सकते है। यही कारण है कि नीतिमत्ता और पवित्रता सदा से ही धर्म् के उद्देश्य रहे है। सभी मन एक विराट मन के अंग हैं। जो व्यक्ति अपने मन को ठीक-ठीक समझता है। और उस पर अधिकार रखता है। वह दूसरों के मन के वास्तविक रूप को समझता है। उस पर अधिककार रखता है। मन की शक्ति, चिंताओं से मुक्त होती है।‘’ – स्वामी विवेकानंद (जीवन दर्शन)
‘’वह मनुष्य जिसने अपने मन पर अधिकार कर लिया है दूसरे मनुष्यों के मन पर भी अधिकार करने का सामर्थ्य रखता है। नीतिमान और पवित्र आत्मा वाले लोग ही अपने ऊपर अधिकार कर सकते है। यही कारण है कि नीतिमत्ता और पवित्रता सदा से ही धर्म् के उद्देश्य रहे है। सभी मन एक विराट मन के अंग हैं। जो व्यक्ति अपने मन को ठीक-ठीक समझता है। और उस पर अधिकार रखता है। वह दूसरों के मन के वास्तविक रूप को समझता है। उस पर अधिककार रखता है। मन की शक्ति, चिंताओं से मुक्त होती है।‘’ – स्वामी विवेकानंद (जीवन दर्शन)
saving score / loading statistics ...