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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) - VIVEK SEN - 9039244002
created Nov 18th 2017, 04:26 by VivekSen1328209
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पद्मावती फिल्म पर उठे राष्ट्रीय विवाद के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर बनी डाक्यूमेंटरी 'एन इनसिग्नीफिकेंट मैन' पर रोक लगाने से इनकार करते हुए लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण अधिकार पर मूल्यवान संदेश दिया है। अदालत का साफ कहना है कि कानून में दिए गए प्रतिबंधों के अलावा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर किसी भी रूप में रोक नहीं लगाई जानी चाहिए। खुशबू रांका और विजय शुक्ला के इस वृत्तिचित्र के केजरीवाल के मुंह पर स्याही पोतने वाले नचिकेता वालहेकर को इसलिए आपत्ति थी, क्योंकि केजरीवाल को नायक के रूप में प्रस्तुत करती है, जबकि इस बारे में मुकदमा चल रहा है। उन्हें यह भी आपत्ति थी कि इस फिल्म में केजरीवाल को पीडि़त दिखाया गया है और बाद में अदालत में इसे सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम का हवाला दिया और फिल्म में कल्पना की छूट देते हुए रचनाकार की स्वतंत्रता को कायम रखने का समर्थन किया। तीन जजों की पीठ का यह फैसला एक नज़ीर है उन लोगों के लिए जो मुकदमों का सहारा लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने की कोशिश करते हैं। न्यायालय के फैसले का सम्मान होना चाहिए और समाज को इसी सोच के तहत काम करना चाहिए। वह सोच देश की संवैधानिक संस्थाओं के निर्णयों को सर-माथे पर रखने की है लेकिन, समाज इस सोच से लगातार दूर जा रहा है। संवैधानिक विचारधारा और समाज की सोच में अंतराल बढ़ रहा है। वह अंतराल किसी क्रांतिकारी परिवर्तन और जड़ता का नहीं है बल्कि वह अंतराल कट्टरता और उदारता का है। हमारा संविधान उदारता की गुंजाइश देता है और वह तभी लागू हो सकता है जब उसके मामने वाले उदार हों। विडंबना यह है कि देश में न सिर्फ सामाजिक औरा धार्मिक बल्कि राजनीतिक उदारता भी दम तोड़ रही है। लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी की व्याख्या के सिर्फ संवैधानिक संस्थाओं पर यकीन करने की बजाय राज्येतर संगठनों का सहारा भी ले रहे हैं। वे संगठन न सिर्फ रचनाकारों को धमका रहे हैं बल्कि संस्थाओं को भी परोक्ष चेतावनी दे रहे हैं। यह भारत की उस पूंजी का दिवालिया होना है, जिसके सहारे वह तमाम सभ्यताओं को चुनौती देता रहा है। देश के नागरिकों को समझना होगा कि रचना और विचार का जवाब श्रेष्ठ विचार और रचना से दिया जाता है न कि प्रतिबंध से।
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