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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH -(MP)

created Nov 20th 2017, 09:36 by DeendayalVishwakarma


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अपने बारे में लिखना काफ़ी मुश्किल काम होता है। कम से कम मेरे लिए तो यह मुश्किल-तरीन कामों से एक है। इसे आसान ब‍(नाने के लिए अपने आप से कुछ सवाल पूछने पड़ते हैं। जैसे यह कि मैा जो आज हूँ, अच्‍छा औश्र बुरा भी, वो किस-किस वजह से हूँ? क्‍या ख़ुद को ढालने का सारा श्रेय मुझे है, या मेरी अम्‍मी और अब्‍बा को है, या फिर उस बड़े परिवार को है जहां मेरी परवरिश हुई या स्‍कूल को जहां मेरे अध्‍यापकों ने मुझे ढालने की कोशिश की? या फिर उन लेखकों को जिनकी  किताबें पढ़कर मैं बड़ा हुआ या मैं अपने होने का श्रेय उन शायरों उन कवियों, चित्रकारों, फिल्‍म निर्माताओं को दूं, जिन्‍होनें मेरी सोच को ढाला? या दुनिया के उन महान लोगों को दूं, जिन्‍होनें इस बदलने के रास्‍ते दिखाकर मेरी पीढ़ी को प्रभावित किया। या मैं बस अपने दौर की पैदावार हूं
?
प्रश्‍नों की सूची लंबी होती जाती है, इतनी लंबी कि हर सवाल बेबुनियाद लगने लगता है लेकिन, यह विश्‍वास कि हमारा जीवन सवाल पूछने और उनके जवाब तलाश करने की कोशिश ही तो है। चाहे वे सवाल अपने जीवन के बारे में ही क्‍यों हों। चाहे वो सवाल अपने जीवन के बारे में ही क्‍यों हों। वैसे तो कोई भी सवाल गलत नहीं होता, जवाब गलत या सही हो सकते हैं। मगर सिर्फ सवालों मे उलझकर रह जाना जरूर गलत है, जवाब तलाश करना ही सवाल पूछने का मकसद होना चाहिए। जब मैं 61 साल की उम्र में अपने से थोड़ा दूर खड़े होकर अपने आप को देखने की कोशिश करता हूं तो मुझे अपने अंदर बहुत सारी कमियां दिखाई देती हैं। जब हम खुद से सवाल पूछते हैं तो हमारा सामने जाता है। खूबियां-खामियां दिखने लगती हैं।
 बहुत सारे ऐसे टूटे-टूटे ख्‍वाब दिखाई देते हैं, जिन्‍हें मैं पूरा नहीं कर सका। ढेर सारे हारे हुए संघर्ष दिखाई देते है, ऐसे संघर्ष भी जो खुद अपने आप से किए और ऐसे भी जो अपनी जैसी सोच रखने वाले दोस्‍तों के साथ मिलकर समाज को बदलने के लिए किए। ऐसे ढेर सारे दोष दिखाई देते है जो मैं खुद अपने आप को दे सकता हूँ। ऐसा होना किसी भी व्‍यक्ति के लिए बिल्‍कुल स्‍वाभाविक है, क्‍योंकि ख्‍वाब युवावस्‍था के आदर्शों का नतीजा होते हैं और कई बार वास्‍तविकता अथवा यथार्थ कुछ अलग दिशा लेते हैं तो आदर्श जमीन पर लाने में मुश्किलें पेश आती हैं। मगर ऐसा भी बहुत कुछ है जो ख़ूबसूरत है, जो मेरे परिवार ने, मेरे अम्‍मी, अब्‍बा, भाई-बहन, दोस्‍त, स्‍कूल, अध्‍यापकों, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सटी, आईआईटी दिल्‍ली, मेरे ऑफिस के माहौल ने मुझे दिया। और हां, उन दोस्‍तों ने भी जो विदेशों में कहीं मेरे कल्‍चर से बहुत दूर किसी और कल्‍चर में वही ख्‍़वाव देश रहे थे, जो मेरी पीढ़ी के कुछ लोग देख रहे थे। कई बार देश, काल, संस्‍कृतियों के परे एक ही पीढ़ी के लोग समान ख्‍वाव देखते हैं।

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