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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP)
created Feb 14th 2018, 05:09 by SubodhKhare1340667
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किसी शहर में एक अच्छा परिवार रहता था। उसमें चार भाई थे। जायदाद और धन-दौलत बरबाद हो चुकी थी। चारों भाई हुनरमंद और पढ़े-लिखे थे, फिर भी अपनी पुरानी खानदानी इज्ज्त के कारण कहीं नौकरी-चाकरी या काम धंधा नहीं कर पाते थे। घर में गरीबी दिन-ब-दिन बढ़ रही थी। धीरे-धीरे उन्होंने बीवी-बच्चों के सारे जेवर भी बेच डाले। आखिर, एक दिन ऐसा आया कि घर में कुछ भी न बचा और खाने-पीने के भी लाले पड़ने लगे। अब क्या किया जाए?
उनके घर के पास बगीचे में सहिजन का एक पेड़ था। उसके फलने का मौसम था। बहुत लंबे लंबे ओर हरे-हरे सहिजन लटक रहे थे। जब शाम हो जाती और चारों तरफ कुछ सन्नाटा छा जाता, तब उन चारों भाइयों में से कोई एक उस पेड़ पर चढ़ जाता और फलियों को तोड़कर नीचे गिरा देता। कुछ रात बीते एक कुँजडि़न आती और सारी फलियाँ खरीदकर ले जाती। इससे जो थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते, उन्हीं से परिवार का गुजारा चलता। दीवाली के बाद एक दिन उनके यहॉ कोई रिश्तेदार आया। उसे उन लोगों की बुरी हालत का पता न था। जब भोजन तैयार हुआ, तो बड़े भाई ने बहाना बनाया, आज मेरा सोमवार है, मैं खाना नहीं खाऊंगा। दूसरे ने कहा, ''मेरे पेट में दर्द हो रहा है, डॉक्टर ने खाने से मना किया है।''
तीसरे भाई का कहना था कि मुझे अपने दोस्त के यहाँ दावत में जाना है, अत: वह भी शरीक नही हुआ। सबसे छोटा भाई घर में आए हुए मेहमान के साथ खाने बैठा। दो थालियाँ सजाई गई। जब दोनों खाने बैठे, तो बूढ़ी माँ मेहमान से खाने का खूब आग्रह करती, लेकिन अपने लड़के से जरा भी नहीं पूछती और परोसने में भी कंजूसी करती। वह लड़का भी सधा हुआ था, कोई चीज परोसने से पहले ही हाथ हिलाकर कह देता, मुझे नहीं चाहिए। इस तरह दो बार भोजन करने पर मेहमान ताड़ गया कि ये लोग गरीबी के शिकार हो रहे हैं। घर की हालत खराब है। खाने पीने की तकलीफ बढ़ गई है, फिर भी इन्हें अपनी फिक्र नहीं। किसी तरह उस दिन रात का खाना खाकर वह मेहमान बरामदे में सो गया। सो क्या गया, उसने सोने का ढोंग किया। करीब रात के दस बजे कुँजडि़न आई। बड़े भाई ने सावधानी से, बिल्ली की तरह दबे पैरों से पेड़ पर चढ़कर सहिजन की काफी फलियाँ तोड़ी। कुँजडि़न जानती थी कि इस वक्त इनकी गरज है, मैं जो दाम दूंगी, ले लेंगे।
उनके घर के पास बगीचे में सहिजन का एक पेड़ था। उसके फलने का मौसम था। बहुत लंबे लंबे ओर हरे-हरे सहिजन लटक रहे थे। जब शाम हो जाती और चारों तरफ कुछ सन्नाटा छा जाता, तब उन चारों भाइयों में से कोई एक उस पेड़ पर चढ़ जाता और फलियों को तोड़कर नीचे गिरा देता। कुछ रात बीते एक कुँजडि़न आती और सारी फलियाँ खरीदकर ले जाती। इससे जो थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते, उन्हीं से परिवार का गुजारा चलता। दीवाली के बाद एक दिन उनके यहॉ कोई रिश्तेदार आया। उसे उन लोगों की बुरी हालत का पता न था। जब भोजन तैयार हुआ, तो बड़े भाई ने बहाना बनाया, आज मेरा सोमवार है, मैं खाना नहीं खाऊंगा। दूसरे ने कहा, ''मेरे पेट में दर्द हो रहा है, डॉक्टर ने खाने से मना किया है।''
तीसरे भाई का कहना था कि मुझे अपने दोस्त के यहाँ दावत में जाना है, अत: वह भी शरीक नही हुआ। सबसे छोटा भाई घर में आए हुए मेहमान के साथ खाने बैठा। दो थालियाँ सजाई गई। जब दोनों खाने बैठे, तो बूढ़ी माँ मेहमान से खाने का खूब आग्रह करती, लेकिन अपने लड़के से जरा भी नहीं पूछती और परोसने में भी कंजूसी करती। वह लड़का भी सधा हुआ था, कोई चीज परोसने से पहले ही हाथ हिलाकर कह देता, मुझे नहीं चाहिए। इस तरह दो बार भोजन करने पर मेहमान ताड़ गया कि ये लोग गरीबी के शिकार हो रहे हैं। घर की हालत खराब है। खाने पीने की तकलीफ बढ़ गई है, फिर भी इन्हें अपनी फिक्र नहीं। किसी तरह उस दिन रात का खाना खाकर वह मेहमान बरामदे में सो गया। सो क्या गया, उसने सोने का ढोंग किया। करीब रात के दस बजे कुँजडि़न आई। बड़े भाई ने सावधानी से, बिल्ली की तरह दबे पैरों से पेड़ पर चढ़कर सहिजन की काफी फलियाँ तोड़ी। कुँजडि़न जानती थी कि इस वक्त इनकी गरज है, मैं जो दाम दूंगी, ले लेंगे।
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