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नमकीन एवं क्षारीय मिट्टियाँ शुष्क तथा अर्द्धशुष्क भागों
created Apr 21st 2018, 07:29 by RakeshKumar1510884
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नमकीन एवं क्षारीय मिट्टियाँ शुष्क तथा अर्द्धशुष्क भागों एवं दलदली क्षेत्रों में मिलती है। इसे विभिन्न स्थानों पर थूर, ऊसर, कल्लर, रेह, करेल, राँकड़, चोपन आदि नामों से जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति शुष्क एवं अर्धशुष्क भागों में जल तल के ऊँचा होने एवं जलप्रवाह के दोषपूर्ण हाेने के कारण होती है। ऐसी स्थिति में केशिकाकर्षण की क्रिया द्वारा सोडियम, कैल्शियम एवं मैगनीशियम के लवण मृदा की ऊपरी सतह पर निक्षेपित हो जाते हैं। फलस्वरूप इस मिट्टी में लवण की मात्रा काफी बढ़ जाती है। समुद्र तटीय क्षेत्रों में ज्वार के समय नमकीन जल भूमि पर फैल जाने से भी इस मृदा का निर्माण होता है। प्राय: यह मिट्टी उर्वरता से रहित रहती है। क्योंकि इसमें सोडियम, कैल्शियम और मैग्नीशिय की मात्रा अधिक रहती है। इसमें जीवाश्म आदि नही मिलते है। ऐसी मृदा में नाइट्रोजन की कमी होती है। यह एक अंत:क्षेत्रीय मिट्टी है, जिसका विस्तार सभी जलवायु प्रदेशों में पाया जाता है। यह मिट्टी मुख्यत: दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, गंगा के बायें किनारे के क्षेत्र, केरल तट, सुंदरवन क्षेत्र सहित वैसे क्षेत्रों भी पाई जाती है जहाँ सिंचाई के कारण जल स्तर ऊपर उठ गया है। यह एक अनुपजाऊ मृदा है। तटीय क्षेत्रों में इस मृदा में नारियल एवं तेल ताड़ की कृषि की जाती है। पीट या जैविक मिट्टी यह मिट्टी लगभग एक लाख वर्ग किमी क्षेत्र में पाई जाती है। दलदली क्षेत्रों में अधिक मात्रा में जैविक पदार्थों के जमा हो जाने से इस मिट्टी का निर्माण होता है। इस प्रकार की मिट्टी काली, भारी एवं अम्लीय होती है। यह मिट्टी मुख्यत: केरल के अपेली जिला, अत्तरांचल के अल्मोड़ा, सुन्दरवन डेल्टा एवं अन्य निम्न डेल्टज्ञई वनों में पाई जाती है जल की माद्धत्रा कम होते ही इस मिट्टी में चावल की कृषि की जाती है। तराई प्रदेश में इस मिट्टी में गन्ने की भी कृषि की जाती है।
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