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created Jul 18th 2018, 13:47 by AbhishekSingh8343


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पहले कभी जब अल्‍लाह-हू और अलिफ अल्‍लाह सुनते थे, तो उनमें एक अलग स्‍तर की सूफियाना रूहानियत का एहसास होता था। अल्‍लाह के नाम को तो बचपन से ही कव्‍वालियों में सुनते रहे हैं। नुसरत साहब ने अल्‍लाह-हू भी गाई है और कोई नुसरत साहब ने अल्‍लाह-हू भी गाई है अौर कोई बोले राम-राम भी जपा है। आबिदा परवीन, गुलाम अली , बडे गुलाम अली सहाब, महदी हसन और जाने ऐसे कितने ही फनकार मेरे पंसदीदा हैं, जिनके बारे में 'समझदार ' बनने से पहले कभी पराया होने का ख्‍याल मन में नहीं आया। इन सबसे एक अलग किस्‍म का जुड़ाव हमेशा से रहा। अपनी कला, अपने संगीत से ये सभी फनकार कभी पराए ही नहीं लगे। शायद, तब संगीत के आगे कोई धर्म नहीं दिखता था। दिखता था, तो सिर्फ संगीत। जाने क्‍यों पिछले कुछ समय से धर्म दिखने लग पड़ा है या कहें कि जबरदस्ती हमें दिखाया जा रहा है और हम मूर्ख बन बंदगी की रूहानी तानों में धर्म ढूंढ़ने लग पड़े हैं।
कुछ समय से संगीत भी सीमाओं में बंधने लगा है। दुख होता है कि भारत में राजनीति, पैसे और मीडिया ने सामान्‍य जीवन में इनती घुसपैठ कर ली है कि अब वे आपकी पसंद-नापसंद तक पर अधिकार जमाना चाहते हैं। .. लेकिन सभी तरह के द्वंद्वों से इतर मैं आज भी इन सबको सुनता हूं। मेरे लिए ये सभी आज भी उस्‍ताद हैा जीवन में अक्‍सर ऐसे अवसर आते हैं जब जरा सी लापरवाही भारी पड़ जाती है। हम मन ही मन खींचते रहते हैं, भुनभुनाते रहते है। हम मन ही मन सोचते रहते हैं। काश वह काम दूसरी तरह से  

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