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created Aug 9th 2018, 09:28 by SubodhKhare1340667
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भीड़ द्वारा की गई हिंसा की घटनाओं का अंत नहीं है। इनकी संख्या को देखते हुए सरकार पर इसके लिए विशेष कानून बनाने का दबाव आ पड़ा है। सवाल उठता है कि इन घटनाओं का आधार क्या सत्य होता है अगर होता भी है, तो लोग इतने उग्र क्यों हो जाते हैं कि अपराधी को कानून के हवाले करने की अपेक्षा स्वयं ही उसका न्याय करने पर उतारु हो जाते हैं 2012 में सोशल मीडिया पर उड़ी अफवाहों और एम एम एम ने बेंगलुरु में बसे बहुत से पूर्वोत्तर क्षेत्रीय लोगों को वापस जाने पर मजबूर कर दिया था। 2013 में हुए मुजफ्फरनगर में दंगों की शुरुआत फेसबुक पर जारी हुए एक वीडियो से हुई थी। 2014 में इंटरनेट पर जोड़-तोड़कर बनाई गई फोटो के कारण बड़ोदरा में दंगे हुए।
हाल ही में महाराष्ट्र में धुले में एक वीडियो के चलते बच्चा उठाने वाले के संदेह में निर्दोष को मार दिया गया। इन घटनाओं का कारण बनने वाली कुछ तस्वीरें बेंगलुरु, कराची या सीरिया से आई हुई थीं। इन घटनाओं से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि इनके पीछे तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है। जब तक यह सुरक्षित हाथों में है, तब तक जनता का भला कर सकती हे। जहां यह गलत हाथों में पड़ी, तो कहर भी ढा सकती है। अब सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियों को चाहिए कि वे इकसा हल ढूंढें। सरकार ने भी इस दिशा में प्रयास तेज कर दिए हैं। फोटो, वीडियो और मैसेज को पांच लोगों को शेयर करने तक सीमित कर दिया गया है।
हाल ही में महाराष्ट्र में धुले में एक वीडियो के चलते बच्चा उठाने वाले के संदेह में निर्दोष को मार दिया गया। इन घटनाओं का कारण बनने वाली कुछ तस्वीरें बेंगलुरु, कराची या सीरिया से आई हुई थीं। इन घटनाओं से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि इनके पीछे तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है। जब तक यह सुरक्षित हाथों में है, तब तक जनता का भला कर सकती हे। जहां यह गलत हाथों में पड़ी, तो कहर भी ढा सकती है। अब सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियों को चाहिए कि वे इकसा हल ढूंढें। सरकार ने भी इस दिशा में प्रयास तेज कर दिए हैं। फोटो, वीडियो और मैसेज को पांच लोगों को शेयर करने तक सीमित कर दिया गया है।
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