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ज्ञानोपदेश (मंगल)

created Sep 22nd 2018, 12:05 by arpanshukla


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ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपदेश की जरूरत होती है और ही ग्रंथों के अध्ययन की। अणु और परमाणु को जान लेना भी नहीं है। ज्ञान ऐसा होना चाहिए, जो धारण करने के बाद हमारे व्यवहार में उतर सके।जो ज्ञान हमारे कर्म और व्यवहार मे दिखे, वैसा ज्ञान स्वयं तक के लिए लाभकारी नहीं होता। ऐसा ज्ञान व्यर्थ है, समय की बर्बादी है। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि हम सत्संग करने जा रहे हैं या सत्संग से रहे हैं। सत्संग कहीं करने जाना होता है और कहीं से करके आना होता है, बल्कि सत्संग को हमें हमेशा अपने साथ लेकर चलना होता है। सत्संग क्या है सत्य के संग। अब सत्य का साथ मनुष्य को जीवनभर निभाना पड़ेगा। जो सत्य के मार्ग से डिग जाए, फिर उसका सत्संग में जाने या जाने का क्या मतलब है।
इसी तरह उस ज्ञानोपदेश के क्या अर्थ, जिसे हम आत्मसात ही कर पाए। हमने अहिंसा का पाठ पढ़ तो लिया कि जियो और जीने दो, लेकिन इस पाठ का महत्व तभी होगा जब हम वास्तव में हिंसा करना बंद कर दें हम हिंसा करते रहें और कहे कि हमने अहिंसा का पाठ पढ़ लिआ है तो इससे मुंह में राम बगल में छुरी वाली कहावत ही चरितार्थ होगी। ज्ञान प्राप्त करेन के बाद मनुष्य को अपने व्यक्तित्व में ऐसा निखार लाना होता है कि उसका प्रभाव उसके कर्म में दिखे। हम तमसो मा ज्योतिर्गमय कहते है तो इसका अर्थ यही हुआ कि मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ। यहां प्रकाश का अर्थ ज्ञान से है। अंधकार में कुछ नहीं दिखाई देता, जबकि प्रकाश में सब कुछ दिखाई देता है। यानी हमें ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए,  जिससे हम प्रकाशमयी हो जाए।  
अगर हम ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अंधकार में रहें तो ऐसे ज्ञान के कोई अर्थ नहीं रह जाते। ऐसे ज्ञानी अब भी अज्ञानी है। अज्ञानी के जीवन में उत्साह-तरंग है, जिज्ञासा है और ही कोई रहस्य है। वैसे अपनी प्राकृति से हम जैसा ज्ञानोपदेश प्राप्त कर सकते हैं, वैसे कहीं और से नहीं। पर्वत हमें ऊचा उठाने तो धरती सभी को अपने आपमें समाहित करने की क्षमता विकसित करने की प्रेरणा देती है। नदी हमें अविरल-निर्मल बहने की तो पेड़-पैधे अपना शरीर दूसरों की भलाई में समर्पित करने की सीख देते है।
 

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