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राजनीति के लिए कौटिल्य के विचार

created Oct 12th 2018, 21:43 by ყօցεʂհ րმl


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आज हम बात करते है राजनीति के बारे में तथा जानेंगे कि कौटिल्य के क्या विचार है राजनीति को लेकर
राज्य के विषय में कौटिल्य के विचार
प्राचीन भारतीय विचारक, महान कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ तथा मगध राज्य के भाग्य-निर्माता कौटिल्य का नाम अर्थशास्त्र के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध है। कौटिल्य 375 से 300 ई.पू. को उसके जन्म के नाम विष्णुगुप्त तथा चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। वह मगध नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य का महामंत्री था। तत्कालीन भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। कौटिल्य ने अपनी राजनीतिक कूटनीतिक कला सूझबूझ से इन्हें एक सू्त्र में बाँधकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना में योगदान दिया।
कौटिल्य का ग्रन्थ अर्थशास्त्र राजनीतिक आर्थिक विषयों पर लिखा गया ग्रन्थ नही है, बल्कि यह राज्य की प्रगति तथा शासन की कला में, सम्बन्धित है। कौटिल्य के अनुसार मनुष्यों से बसी हुई भूमी तथा भूमि की प्राप्ति, रक्षा तथा संवर्धन की कला राजशास्त्र है। अतः राजशास्त्र से सम्बन्धित होते हुए भी कौटिल्य ने इसका नाम अर्थशास्त्र रखा। राजनितिक आर्थिक विषयों के अलावा इसमें नैतिकता, शिक्षा, सैन्य प्रबन्ध, राजा प्रजा के कर्तव्य, प्रशासान जन-कल्याण तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः कौटिल्य ने राजनीतिकशास्त्र के मूल सिद्धांतो की चर्चा करने के बजाय प्रशासन के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है।
राज्य की अवधारणाः  
राज्य की उत्पत्ति के संदर्भ में कौटिल्य ने स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा किन्तु कुछ संयोगवश की गई टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि  वह राज्य के दैवी सिद्धांत के स्थान पर सामाजिक समझौते का पक्षधर था। हाब्स, लाक तथा रूसो की तरह राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की प्राकृतिक दशा को वह अराजकता की संज्ञा देता है। राज्य की उत्पत्ति तब हुई जब मतस्य न्याय के कानून से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना तथा अपनी कृषि उपज का छठा भाग स्वर्ण का दसवा भाग उसे देना स्वीकार किया। इसके बदले में राजा ने उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का उत्तरदायित्व संभाला। कौटिल्य राजतंत्र का पक्षधर है।  
राज्य के तत्वः
सप्तांग सिद्धान्त- कौटिल्य ने पाश्चात राजनीतिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चार आवश्यक तत्वों-भूमि, जनसंख्या, सरकार सम्प्रभुता का विवरण देकर राज्य के सात तत्वों का विवेचन किया है. इस सम्बन्ध में वह राज्य की परिभाषा नहीं देता है किन्तु पहले से चले रहे सप्तांग सिद्धांत का समर्थन करता है। कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव के शरीर से की है। तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्व मानव शरीर के अंग के समान परस्पर सम्बन्धित, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते है।
1. स्वामी(राजा) शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।
2. अमात्य (मंत्री) राज्य की आँख है। इस शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने मंत्रीगण, सचिव, प्रशासनिक न्यायिक पदाधिकारियों के लिए भी किया है। वे अपने ही देश के जन्मजात नागरिक, उच्च कुल से सम्बंधित, चरित्रवान, योग्य, विभिन्न कलाओं में निपुण तथा स्वामीभक्त होने चाहिए।
3. जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर है, जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका है। कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।
जनसंख्या में कृषकों, उदधमियों तथा आर्थिक उत्पादन में योगदान देने वाली प्रजा को स्वामिभक्त, परिश्रमी तथा राजा की आज्ञा का पालन करने वाला होना चाहिए।  
4. दुर्गा(किला) राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है। राजा को ऐसे किलों का निर्माण करवाना चाहिए, जो आक्रामक युद्ध हेतु तथा रक्षात्मक दृष्टिकोण से लाभकारी हो। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों औदिक (जल), पर्वत (पहाड़ी), वनदुर्ग (जंगली), तथा धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग का वर्णन किया है।  
5. कोष (राजकोष) राजा के मुख के समान है। कोष को राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। क्योंकि राजा के संचालन तथा युद्ध के समय धन की आवश्यकता होती है। कोष इतना प्रचुर होना चाहिए कि किसी भी विपत्ती का सामना करने में सहायक हो। कोष में धन-वृद्धि हुेतु वह राजा को अनुचित तरीके अपनाने की भी सलाह देता है।
6. दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मस्तिष्क हैं। राजा तथा शत्रु पर नियंत्रण करने के लिए बल अथवा सेना अत्याधिक आवश्यक तत्व है। कौटिल्य ने सेना के 6 प्रकार बताए हैं। जैसे-वंशानुगत सेना, वेतन पर नियुक्त या किराये के सैनिक, सैन्य निगमों के सैनिक, मित्रा राज्य के सैनिक, शत्रु राज्य के सैनिक तथा आदिवासी सैनिक। संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भी सेना में भर्ती किया जा सकता है। सैनिकोंं को धैर्यवान, द्क्ष, युद्ध-कुशल, तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का ध्यान देना चाहिए

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