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created Oct 13th 2018, 04:34 by MayankKhare
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जानकारी के मुताबिक भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड ऐसे नियमों पर काम कर रहा है जो यह सुनिश्चित करेंगे कि कर्ज में फंसी परिसंपत्तियों की गारंटी देने वालों को भी वसूली प्रक्रिया का विषय बनाया जाए। यह कदम स्वागतयोग्य है क्योंकि देखा गया है कि देश में कई कंपनियों के प्रवर्तकों ने बैंकों से व्यक्तिगत गारंटी के तहत ऋण लिया है और बार में कंपनी के दिवालिया होने पर पर बैंकों को उसकी वसूली करने में दिक्कत का सामना करना पड़ा। इस विचार के तहत अगर ऋणदाता मौजूदा दिवालिया प्रक्रिया के तहत कंपनियों से अपना बकाया वसूलने में नाकाम रहते हैं तो वे इन कंपनियों के गारंटरों से वसूली का प्रयास कर सकते हैं। यह नियम अगर ठीक ढंग से प्रभावी हुआ तो वह व्यक्तिगत स्तर पर और होल्डिंग कंपनी दोनों पर लागू होगा।
मौजूदा नियमन में भी कंपनियों और प्रवर्तक अंशधारकों के बीच की कानूनी दूरी को सावधानीपूर्वक बरकरार रखा गया है लेकिन व्यवहार में यह बहुत कम रह गई है। खासतौर पर तब जबकि मामला उधारी का हो। जब गारंटर स्वयं प्रवर्तक भी हो तो निश्चित तौर पर तयशुदा सीमित जवाबदेही का सिद्धांत पूरी तरह लागू नहीं होता। व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे कई मामले हैं जहां लोग संकटग्रस्त और डूब रही कंपनियों को, जो दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रही हो, भारी भरकम कर्ज देने के बावजूद खुद ऐश भरा जीवन जीते रहे हैं। जबकि ऋणदाता अपना बकाया पैसा वसूल करने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। यह सिलसिला अनंतकाल तक नहीं चलता रह सकता और ऐसे में यह अच्छी खबर है कि ऋणशोधन नियामक को सरकार द्वारा देश में प्रवर्तक संस्कृति को समाप्त करने की व्यापक प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जा रहा है। ऐसे प्रयासों की अन्य घटनाओं की बात करें तो उसमें फर्जी कंपनियों की तलाश भी शामिल है।
ये वे कंपनियां हैं जिनका इस्तेमाल प्रवर्तकों द्वारा कर वंचना या परिसंपत्ति को ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है। ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया प्रक्रिया में भी सरकार ने उन प्रवर्तकों को अन्य अन्य कंपनियों की बोली प्रक्रिया में शामिल होने से रोकने का प्रयास किया था। जिन्होंने ऋण ले रखा था और जिनकी परिसंपत्ति को फंसी हुई परिसंपत्ति घोषित किया गया था। दलील यही है कि अगर उन प्रवर्तकों के पास संसाधन हैं तो उनको पहले इनका इस्तेमाल अपनी कंपनियों में निवेश के लिए करना चाहिए।
मौजूदा नियमन में भी कंपनियों और प्रवर्तक अंशधारकों के बीच की कानूनी दूरी को सावधानीपूर्वक बरकरार रखा गया है लेकिन व्यवहार में यह बहुत कम रह गई है। खासतौर पर तब जबकि मामला उधारी का हो। जब गारंटर स्वयं प्रवर्तक भी हो तो निश्चित तौर पर तयशुदा सीमित जवाबदेही का सिद्धांत पूरी तरह लागू नहीं होता। व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे कई मामले हैं जहां लोग संकटग्रस्त और डूब रही कंपनियों को, जो दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रही हो, भारी भरकम कर्ज देने के बावजूद खुद ऐश भरा जीवन जीते रहे हैं। जबकि ऋणदाता अपना बकाया पैसा वसूल करने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। यह सिलसिला अनंतकाल तक नहीं चलता रह सकता और ऐसे में यह अच्छी खबर है कि ऋणशोधन नियामक को सरकार द्वारा देश में प्रवर्तक संस्कृति को समाप्त करने की व्यापक प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जा रहा है। ऐसे प्रयासों की अन्य घटनाओं की बात करें तो उसमें फर्जी कंपनियों की तलाश भी शामिल है।
ये वे कंपनियां हैं जिनका इस्तेमाल प्रवर्तकों द्वारा कर वंचना या परिसंपत्ति को ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है। ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया प्रक्रिया में भी सरकार ने उन प्रवर्तकों को अन्य अन्य कंपनियों की बोली प्रक्रिया में शामिल होने से रोकने का प्रयास किया था। जिन्होंने ऋण ले रखा था और जिनकी परिसंपत्ति को फंसी हुई परिसंपत्ति घोषित किया गया था। दलील यही है कि अगर उन प्रवर्तकों के पास संसाधन हैं तो उनको पहले इनका इस्तेमाल अपनी कंपनियों में निवेश के लिए करना चाहिए।
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