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दुनिया में शायद भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें नौकरशाही की लापरवाही और कंपनियों की मनमानी का खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। हाल ही में हरियाणा के एक खेत में प्रतिबंधित बीटी बैंगन के 1300 पौधे लगाकर तैयार की गई फसल को नष्ट किया गया है। ये फसल हिसार के किसान जीवन सैनी ने तैयार की थी। उसने जब हिसार की सड़कों के किनारे बैंगन की इस पौध को खरीदा तो उसे पता नहीं था कि यह पौधा प्रतिबंधित है। जीवन ने सात रुपए की दर से पौधे खरीदे थे। उसने ही नहीं, हिसार के फतेहाबाद, डबवाली के अनेक किसानों ने ये पौधे खरीदे थे। ढाई एकड़ में लगी जब यह फसल पकने लग गई तब कृषि एवं बागवानी अधिकारियों ने यह कहकर नष्ट करा दी कि यह प्रतिबंधित आनुवंशिक बीज से तैयार की गई है। इसे नष्ट करने की सिफारिश नेशनल यूरो फॉर प्लांट जैनेटिक रिसोर्स ने की थी। परीक्षण में दावा किया गया कि खेत से लिए नमूनों को आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। जबकि इन अधिकारियों ने मूल रूप से बैंगन की पौध तैयार कर बेचने वाली कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की। दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं, इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। बावजूद देश में सरकार को धता बताते हुए इनके बीच और पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा केवल बीटी कपास की अनुमति दी गई है। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परीक्षणों से यह आशंका बढ़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा होगा।
भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा केवल बीटी कपास की अनुमति दी गई है। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परीक्षणों से यह आशंका बढ़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा होगा।
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