Text Practice Mode
BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || CPCT_Admission_Open
created Jun 12th 2019, 11:05 by MayankKhare
0
382 words
8 completed
0
Rating visible after 3 or more votes
00:00
पिछले हफ्ते दुष्कर्म के बाद हत्या की कई खबरें पढ़कर रूह कांप गई। खौफनाक तथ्य यह है कि घिनौने अपराध की शिकार होने वाली चार से लेकर नौ साल तक की बच्चियां थीं। जबकि अपराध को अंजाम देने वाले अपरिपक्व मानसिकता के शिकायत से लेकर पैंतीस साल की आयु के परिपक्व युवा थे। यह सिर्फ यौन अपराध नहीं बल्कि विकृत मानसिकता की हैवानियत है। जिस तरह की हिंसा और खतरनाक व्यवहार इन घटनाओं में देखा गया है उसे देखकर लगता है कि जैसे हर गली में साइकोपैथ घूम रहे हैं। हाल में हुए अपराध मध्यप्रदेश के शहरों में हुए हैं, जहां दुष्कर्मी के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। इसके बावजूद यौन अपराध घटने की बजाय बढ़े ही हैं।
क्या यह हमारी व्यवस्था की नाकामी है? दरअसल, जहां कानूनी प्रावधानों के साथ किसी प्रकार का सामाजिक नियंत्रण होता है, वहां इस तरह की प्रवृत्तियों पर अंकुश रहता है। ऐसी घटनाएं प्राय: महानगरों में घट रही हैं, जहां अपराधी के साथ अपराध के शिकार भी एक तरह की गुमनामी में रहते हैं। परिवार टूटा होता है। कोई रिश्तेदार नहीं, जान-पहचान नहीं। ऐसे में यदि कोई बच्ची या अपराधी वयस्क भी कुछ घंटों से लेकर कई दिनों तक भी गायब रहे तो किसी के ध्यान में नहीं आता। ऐसी स्थिति अपराधी को सामाजिक अंकुश व कानूनी न्याय के अभाव की निश्चिंतता देती है। इसका दूसरा पक्ष बिखरते परिवारों में खोजा जा सकता है। घर में कलह, कर्कश व्यवहार और हिंसा देखकर बड़े हुए किशोर में विकृति आने की पूरी आशंका रहती है। ये सारे तेजी से बदलते समाज के अभिशाप हैं। स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब इसे जातिगत या सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। जैसा जम्मू-कश्मीर के कठुआ में बच्ची के साथ हुई हैवानियत के मामले में हुआ। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को कठुआ से हटाकर पंजाब के पठानकोट में स्थानांतरित कर दिया। जम्मू-कश्मीर पुलिस के विशेष दल ने सराहनीय काम करके विस्तृत चार्जशील पेश की। यह आसान नहीं था, क्योंकि दोषियों ने स्थानीय पुलिस को रिश्वत देकर सबूत नष्ट कर दिए थे। तीन दोषियों को उम्र केद और तीन अन्य को सबूत नष्ट करने के आरोप में पांच-पांच साल कैद की सजा सुनाई गई। न्याय की ऐसी रफ्तार अन्य मामलों में दिखानी होगी। इसके साथ इसके सामाजिक व शैक्षिक पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है।
क्या यह हमारी व्यवस्था की नाकामी है? दरअसल, जहां कानूनी प्रावधानों के साथ किसी प्रकार का सामाजिक नियंत्रण होता है, वहां इस तरह की प्रवृत्तियों पर अंकुश रहता है। ऐसी घटनाएं प्राय: महानगरों में घट रही हैं, जहां अपराधी के साथ अपराध के शिकार भी एक तरह की गुमनामी में रहते हैं। परिवार टूटा होता है। कोई रिश्तेदार नहीं, जान-पहचान नहीं। ऐसे में यदि कोई बच्ची या अपराधी वयस्क भी कुछ घंटों से लेकर कई दिनों तक भी गायब रहे तो किसी के ध्यान में नहीं आता। ऐसी स्थिति अपराधी को सामाजिक अंकुश व कानूनी न्याय के अभाव की निश्चिंतता देती है। इसका दूसरा पक्ष बिखरते परिवारों में खोजा जा सकता है। घर में कलह, कर्कश व्यवहार और हिंसा देखकर बड़े हुए किशोर में विकृति आने की पूरी आशंका रहती है। ये सारे तेजी से बदलते समाज के अभिशाप हैं। स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब इसे जातिगत या सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। जैसा जम्मू-कश्मीर के कठुआ में बच्ची के साथ हुई हैवानियत के मामले में हुआ। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को कठुआ से हटाकर पंजाब के पठानकोट में स्थानांतरित कर दिया। जम्मू-कश्मीर पुलिस के विशेष दल ने सराहनीय काम करके विस्तृत चार्जशील पेश की। यह आसान नहीं था, क्योंकि दोषियों ने स्थानीय पुलिस को रिश्वत देकर सबूत नष्ट कर दिए थे। तीन दोषियों को उम्र केद और तीन अन्य को सबूत नष्ट करने के आरोप में पांच-पांच साल कैद की सजा सुनाई गई। न्याय की ऐसी रफ्तार अन्य मामलों में दिखानी होगी। इसके साथ इसके सामाजिक व शैक्षिक पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है।
saving score / loading statistics ...