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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || CPCT_Admission_Open {संचालक-बुद्ध अकादमी टीकमगढ़}
created Jul 9th 2019, 09:12 by subodh khare
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भारत की समस्याएं जटिल हैं, क्योंकि ये सभी आपस में जड़ी हुई हैं। रोजगार और आय निवेश और प्रगति आर्थिक क्षेत्र का ऊलझाव अंतरराष्ट्रीय व्यापार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र ऐसे हैं जहां एक को सुलझाने पर दूसरी ओर स्थिति खराब हो सकती है। इन जटिलताओं को सुलझाने हेतु सशक्त नीति और सुदृढ़ रणनीति की जरूरत है। सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार के पास ऐसी नीतियाँ और रणनीतियां बनाने की क्षमता है।
जटिलता की इस चुनौती को समझते हुए प्रधानमंत्री ने 2015 में योजना आयोग का विघटन करके नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फार्मिंग इंडिया का गठन किया था। समय के साथ, अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के कारण नीति आयोग को आज कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। इसकी सार्थकता को जांचे-परखे जाने की जरूरत है।
मोदी से पूर्व, अटल बिहारी बाजपेयी और मनमोहन सिंह को भी इसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैश्विक जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। बाजपेयी जी ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत जैसे विविधतापूर्ण प्रजातंत्र के लिए, जिसमें राज्य, निजी क्षेत्र, सामाजिक संस्थाएं और विपक्षी दल अपनी भागीदारी निभाते हैं, नीतियों का कार्यान्वयन इतना आसान नहीं है। इसके लिए सुनियोजित रणनीति के साथ-साथ सहभागिता आधारित कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।
मनमोहन सिंह ने योजना आयोग में सुधार के अनेक प्रयास किए थे। कई हितधारकों से सलाह-मशविरा किया गया। वैश्विक कार्य-प्रणालियों को देखा गया था। योजना आयोग की एक ऐसी रूपरेखा खींची गई थी। जिसमें पंचवर्षीय योजनाएं बनाने की बजाय, उसके सिस्टम में सुधार की क्षमता विकसित की जा सके। बजट की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय को दे दी गई।
वर्तमान संदर्भ में नीति आयोग की भूमिका को लेकर यह चिन्ता व्याप्त हो गई है कि आयोग, सरकार को दिशा-निर्देश देने वाली एक स्वतंत्र संस्था के रूप में अपनी अखण्डता खो चुका है। यह सरकार की कठपुतली की तरह काम कर रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि नीति आयोग के पास केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यक्रमों का स्वतंत्र अवलोकन करने की शक्ति है। कुछ का यह भी मानना है कि यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में इसमें एक स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय हुआ करता था, जिसे समाप्त कर दिया गया है। यहां वे भूल जाते हैं कि योजना आयोग के मूलभूत परिवर्तन के लिए नीति आयोग का गठन किया गया था। इसे परंपरागत रूप से चलने वाला नंबरों और बजट के बाद वाला मूल्यांकन नहीं किया जाता है। इस 21वीं सदी के नीति आयोग के चार्टर में कार्य के संपन्न होने के साथ-साथ ही मूल्यांकन और सुधार किया जाता है।
जटिलता की इस चुनौती को समझते हुए प्रधानमंत्री ने 2015 में योजना आयोग का विघटन करके नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फार्मिंग इंडिया का गठन किया था। समय के साथ, अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के कारण नीति आयोग को आज कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। इसकी सार्थकता को जांचे-परखे जाने की जरूरत है।
मोदी से पूर्व, अटल बिहारी बाजपेयी और मनमोहन सिंह को भी इसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैश्विक जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। बाजपेयी जी ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत जैसे विविधतापूर्ण प्रजातंत्र के लिए, जिसमें राज्य, निजी क्षेत्र, सामाजिक संस्थाएं और विपक्षी दल अपनी भागीदारी निभाते हैं, नीतियों का कार्यान्वयन इतना आसान नहीं है। इसके लिए सुनियोजित रणनीति के साथ-साथ सहभागिता आधारित कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।
मनमोहन सिंह ने योजना आयोग में सुधार के अनेक प्रयास किए थे। कई हितधारकों से सलाह-मशविरा किया गया। वैश्विक कार्य-प्रणालियों को देखा गया था। योजना आयोग की एक ऐसी रूपरेखा खींची गई थी। जिसमें पंचवर्षीय योजनाएं बनाने की बजाय, उसके सिस्टम में सुधार की क्षमता विकसित की जा सके। बजट की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय को दे दी गई।
वर्तमान संदर्भ में नीति आयोग की भूमिका को लेकर यह चिन्ता व्याप्त हो गई है कि आयोग, सरकार को दिशा-निर्देश देने वाली एक स्वतंत्र संस्था के रूप में अपनी अखण्डता खो चुका है। यह सरकार की कठपुतली की तरह काम कर रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि नीति आयोग के पास केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यक्रमों का स्वतंत्र अवलोकन करने की शक्ति है। कुछ का यह भी मानना है कि यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में इसमें एक स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय हुआ करता था, जिसे समाप्त कर दिया गया है। यहां वे भूल जाते हैं कि योजना आयोग के मूलभूत परिवर्तन के लिए नीति आयोग का गठन किया गया था। इसे परंपरागत रूप से चलने वाला नंबरों और बजट के बाद वाला मूल्यांकन नहीं किया जाता है। इस 21वीं सदी के नीति आयोग के चार्टर में कार्य के संपन्न होने के साथ-साथ ही मूल्यांकन और सुधार किया जाता है।
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