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बंसोड टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा, छिन्दवाड़ा मो.न.8982805777 सीपीसीटी न्यू बैच प्रांरभ
created Aug 19th 2019, 01:42 by sachin bansod
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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के हवाले से जारी संदेश मन में भय पैदा करता है कि इतने बड़े भावनात्मक सदमें के बाद तीसरे ही दिन सबकुछ ठीक कैसे नजर आ सकता है! शक होता है कि कुछ ऐसा छुपाया जा रहा है जो संचार साधनों पर प्रतिबंधों के चलते देश के उस सामान्य नागरिक तक नहीं पहुंच पा रहा है जो सरकार की उपलब्धि को ऐतिहासिक मानते हुए इस समय जश्न मनाने में व्यस्त है। इस तरह की शंकाएं उठना स्वाभाविक भी है। इसी नागरिक को पहले यह बताया गया था कि कश्मीर में पाकिस्तान के समर्थन से कोई बड़ा आतंकी हमला हो सकता है जिसके चलते क बड़ी संख्या में वहां सैनिकों की तैनाती की जा रही है। यही कारण बताते हुए पवित्र अमरनाथ यात्रा को भी स्थगित कर दिया गया और घाटी में मौजूद देश-विदेशी पर्यटकों को रातों-रात अपने घरों के लिए रवाना होने को कह दिया गया। घाटी को एक किले में तब्दील कर दिया गया। नागरिकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लग गए और कश्मीर के तमाम बड़े नेताओं की नजर बंद कर दिया गया। राज्यपाल आदि के आश्वासनों के बावजूद कि अनुच्छेद 370 अथवा 35-ए के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा रही है, संसद में प्रस्ताव के जरिए कश्मीर घाटी और शेष भारत के बीच के फर्क को खत्म कर दिया गया।
यह पता चलने में एक लम्बा वक्त लग सकता है कि वह कश्मीर घाटी जिसकी कि केसर, शालें, अखरोट और खुबानी आदि का जिक्र प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में किया था, संवैधानिक और जमीनी तौर पर तो देश के नजदीक ला दी गई हो पर भावनात्मक रूप से किसी अज्ञात भय के चलते अभी हमसे दूरी बनाए हुए हो। कश्मीर के असली हालातों का पता चल पाएगा जब हजारों की तादाद में वहां तैनात सैनिक भी पर्यटकों की तरह ही अपने-अपने ठिकानों पर वापस लौट जाएंगे। सैन्य उपस्थिति के बीच अनुभव की जाने वाली शांतिपूर्ण स्थिति को जो कुछ घटित हुआ हे, उसके प्रति वहां के नागरिकों की सहमतियां स्वीकृति मानने की जल्दबाजी नहीं की जा सकती। दूसरे यह भी कि स्टेट की सैन्य और असैन्य शक्ति किसी भी तरह के हिंसक प्रतिरोध का तो सक्षमता के साथ मुकाबला कर सकती है, पर उस सन्नाटे और अहिंसक मौन के साथ नहीं लड़ सकती जिसके कि इस तरह की परिस्थितियों में पसर जानेका खतरा हमेशा बना रहता है।
यह पता चलने में एक लम्बा वक्त लग सकता है कि वह कश्मीर घाटी जिसकी कि केसर, शालें, अखरोट और खुबानी आदि का जिक्र प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में किया था, संवैधानिक और जमीनी तौर पर तो देश के नजदीक ला दी गई हो पर भावनात्मक रूप से किसी अज्ञात भय के चलते अभी हमसे दूरी बनाए हुए हो। कश्मीर के असली हालातों का पता चल पाएगा जब हजारों की तादाद में वहां तैनात सैनिक भी पर्यटकों की तरह ही अपने-अपने ठिकानों पर वापस लौट जाएंगे। सैन्य उपस्थिति के बीच अनुभव की जाने वाली शांतिपूर्ण स्थिति को जो कुछ घटित हुआ हे, उसके प्रति वहां के नागरिकों की सहमतियां स्वीकृति मानने की जल्दबाजी नहीं की जा सकती। दूसरे यह भी कि स्टेट की सैन्य और असैन्य शक्ति किसी भी तरह के हिंसक प्रतिरोध का तो सक्षमता के साथ मुकाबला कर सकती है, पर उस सन्नाटे और अहिंसक मौन के साथ नहीं लड़ सकती जिसके कि इस तरह की परिस्थितियों में पसर जानेका खतरा हमेशा बना रहता है।
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