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BANSOD TYPING INSITITUTE, GULABARA CHHINIDWARA (M.P.)
created Dec 11th 2019, 09:55 by SARITA WAXER
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बचपन में एक राजा के न्याय की वह कहानी हम सबने पढ़ी है कि किस तरह उन्होंने एक बच्चे को जिंदा चीरकर उन दोनों महिलाओं को आधा-आधा बांट देने का आदेश दिया था, जो उसकी असली मां होने का दावा कर रही थीं। इस पर बच्चे की असली मां ने फरियाद की कि भले ही बच्चा दूसरी महिला को दे दें, लेकिन उसे चीरें नहीं। यह कहानी आज क्यों प्रासंगिक हैं? इसलिए है कि इसमें राजा न्याय में जरा भी विलंब नहीं करता। आज अगर किसी को सही समय पर न्याय नहीं मिल रहा है तो उसके सामने विकल्प यही है कि वह संविधान और परंपरा के न्यायशास्त्रियों से ही पूछे कि फैसले सुनाने में कई दशक क्यों लग जाते हैं? इस पर न्यायशास्त्रियों का वर्ग हमें लाख समझाए कि भले ही न्याय में विलंब हो जाए, लेकिन किसी निरपराध को सजा नहीं मिलनी चाहिए, हमें संतुष्टि नहीं होगी! जब हम यह सवाल पूछेंगे कि न्याय में विलंब क्या अपने आप में किसी के लिए सजा नहीं है, तो न्यायशास्त्री हमें न्याय-व्यवस्था की बारीकियों से अनजान बताते हुए वही बात दोहराएंगे। इसका मतलब यह भी हुआ कि कम से कम अपने देश में तो, फैसलो में विलंब किया जाना न्याय की प्रथम और शायद अंतिम शर्त है। समझ में न आने वाली बात यह है कि सही न्याय होने की शर्त आखिर न्याय में देरी क्यों हैं? राजा का धर्म यही है कि सभी के लिए न्याय की उचित व त्वरित व्यवस्था हो। जब हम दुनिया के सबसे बड़े और कथित तौर पर सबसे सफल लोकतंत्र है, तो हमारे लोकतांत्रिक राजा अपनी जनता के लिए उचित और त्वरित न्याय की व्यवस्था क्यों नहीं करते हैं? क्यों न्यायाधीशों की नियुक्ति को वर्षों से विवादों में उलझाकर रखा जा रहा हैं? क्यों न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि फरियादियों को वकीलों व बाबुओं की टेबलों के चक्कर पर चक्कर लगाने पड़ते हैं? क्यों देश के राष्ट्रपति को राजस्थान हाईकोर्ट में मंच से कहना पड़ता है कि हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट तक गरीबो को पहुंचना नामुमकिन हो गया है? क्यों जनता में इतना आक्रोश है कि वह एनकाउंटरों पर जश्न मनाती है? सूचना और ज्ञान की दृष्टि से सबल इस युग में न्याय से जुड़े सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल नहीं है। मुश्किल है सक्षम लोगों की सवालों के जवाब देने की नीयत न होना। हम जानते हैं कि नीयत किसकी खराब है, लेकिन विलंब की बुनियाद पर खड़ी इस व्यवस्था को चुनौती कौन दे? इस व्यवस्था को चुनौती देने के जो दफ्तर हैं, वहीं तो न्याय के देवता की जगह विलंब का देवता बैठा है। इतना होते हुए भी कुछ विशेष है इस देश के संस्कारों में कि वह भस्मीभूत हुए सिस्टम की भभूत से ही नया सिस्टम खड़ा कर सकता है। इस नए सिस्टम को खड़ा करने की शुरूआत तब होगी, जब हम भारत के लोग केवल चुनाव के दिनों में नहीं, बल्कि पूरे पांच साल तक कानून बनाने वालों की आखों में आंखें डालकर बात करेंगे!
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