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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤CPCT_Admission_Open✤|•༻

created Jan 23rd 2020, 09:51 by subodh khare


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वर्षों के बाद मुझे मातृभूमि प्‍यारी मातृभूमि के दर्शन प्राप्‍त हुए हैं। जिस समय मैं अपने प्‍यारे देश से विदा हुआ था और भाग्‍य मुझे पश्चिम की ओर ले चला था उस समय मैं पूर्ण युवा था। मेरी नसों में नवीन रक्‍त संचारित हो रहा था। हृदय उमंगों और बड़ी-बड़ी आशाओं से भरा हुआ था। मुझे अपने प्‍यारे भारतवर्ष से किसी अत्‍याचारी के अत्‍याचार या न्‍याय के बलवान हाथों ने नहीं जुदा किया था। अत्‍याचारी के अत्‍याचार और कानून की कठोरताएं मुझसे जो चाहे सो करा सकती हैं मगर मेरी प्‍यारी मातृभूमि मुझसे नहीं छुड़ा सकती। वे मेरी उच्‍च अभिलाषाएं और बड़े-बड़े ऊंचे विचार ही थे जिन्‍होंने मुझे देश-निकाला दिया था।
    मैंने अमेरिका जा कर वहां खूब व्‍यापार किया और व्‍यापार से धन भी खूब पैदा किया तथा धन से आनंद भी खूब मनमाने लूटे। सौभाग्‍य से पत्‍नी ऐसी मिली जो सौंदर्य में अपना सानी आप ही थी। उसकी लावण्‍यता और सुन्‍दरता की ख्‍याति तमाम अमेरिका में फैली। उसके हृदय में ऐसे विचार की गुंजाइश भी थी जिसका संबंध मुझसे हो मैं उस पर तन-मन से आसक्‍त था और वह मेरी सर्वस्‍व थी। मेरे पांच पुत्र थे जो सुंदर हृष्‍ट-पुष्‍ट और ईमानदार थे। उन्‍होंने व्‍यापार को और भी चमका दिया था। मेरे भोले-भाले नन्‍हें-नन्हें पौत्र गोद में बैठे हुए थे जब कि मैंने प्‍यारी मातृभूमि के अंतिम दर्शन करने को अपने पैर उठाये।
    मैंने अनंत धन प्रियतमा पत्‍नी सपूत बेटे और प्‍यारे-प्‍यारे जिगर के टुकड़े नन्‍हें-नन्‍हें बच्‍चे आदि अमूल्‍य पदार्थ केवल इसलिए परित्‍याग कर दिया कि मैं प्‍यारी भारत-जननी का अंतिम दर्शन कर लूं। मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूं दस वर्ष के बाद पूरे सौ वर्ष का हो जाऊंगा। अब मेरे हृदय में केवल एक ही अभिलाषा बाकी है कि मैं अपनी मातृभूमि का रजकण बनूं।
    यह अभिलाषा कुछ आज ही मेरे मन में उत्‍पन्‍न नहीं हुई बल्कि उस समय भी थी जब मेरी प्‍यारी पत्‍नी अपनी मधुर बातों और कोमल कटाक्षों से मेरे हृदय को प्रफुल्लित किया करती थी। और जब कि मेरे युवा पुत्र प्रात:काल कर अपने वृद्ध पिता को सभक्ति प्रणाम करते उस समय भी मेरे हृदय में एक कांटा-सा खटखता रहता था कि मैं अपनी मातृभूमि से अलग हूं। यह देश मेरा नहीं है और मैं इस देश का नहीं हूं। मेरे पास धन था पत्‍नी थी लड़के थे और जायजाद थी मगर मालूम क्‍यों रह-रहकर मातृभूमि के टूटे झोंपड़े चार-छै बीघा मौरूसी जमीन और बालपन के लंगोटिया यारों की याद अक्‍सर सताया करती थी।

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