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created Jan 27th 2020, 05:00 by DeendayalVishwakarma
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प्रजातंत्र को एक ऐसा तंत्र कहा जाना और माना जाना चाहिए, जिसमें नागरिक या मतदाता सम्प्रभु होता है। प्रजातंत्र नागरिकों का समावेश और भागीदारी चाहता है। वर्तमान संदर्भ में प्रजातंत्र पर राजनीतिज्ञ नेताओं का कब्जा है। ऐसी स्थिति में प्रजातंत्र में असहायता की बाकी रह गई है। सम्प्रभु कहा जाने वाला वर्ग अब गुलाम है।
पार्टी बदलने वाले नेताओं के लिए नागरिकों का क्रोध या असंतोष कोई मायने नहीं रखता। वे तो व्यावसायिकों की तरह दल बदलने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन किसी नौकरी की तरह नहीं होता है। प्रजातंत्र में, राजनीति को उन लोगों के द्वारा चुना हुआ पथ माना जाता है, जो कुछ विशेष प्रकार के आदर्शों की पूर्ति के लिए एक स्वतंत्र दिशा खोजते हैं। परन्तु जब राजनीति ही आय का साधन बना ली जाती है, तो दलीय व्यवस्था का धराशायी होना जाहिर है। ऐसे में विचारधारा और आस्था अर्थहीन हो जाती हैं।
अवसरवादी लोग कभी नहीं हारते। वे चुनाव जीतते हैं। यह मायने नहीं रखता कि वे किस पार्टी का झंडा उठा रहे हैं। गोवा की राजनीति में ऐसे ही एक नेता हैं, जिन्होंने पिछले दो दशकों में छ: बार दल-बदल किया है। जिस दल की सरकार होती है, वे उसी में शामिल हो जाते हैं। दो माह पहले ही उन्होंने जब उप चुनाव जीता था, तब भाजपा ने उन पर अनेक आपराधिक आरोप लगाते हुए उनका विरोध किया था। लेकिन फिलहाल वे और उनकी पत्नी भाजपा में शामिल हैं। उनकी पत्नी तो मंत्री है। अगले चुनावों के लिए भी यह कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वे नहीं जीतेंगे। दलों में कोई अंतर नहीं है। सबका यही हाल है। वैसे दल बदलने की प्रथा की शुरुआत 1970 और 80 में इंदिरा गांधी के समय शुरू हुई थी। अब भाजपा ने इसका लाइसेंस ले लिया है। केन्द्र की प्रथा को राज्यों में शुरू कर लिया गया है।
भारत में जब दलों की विचारधारा ही अर्थ नहीं रख रही है, तो दलीय व्यवस्था का सर्वनाश होना तो स्पष्ट है। पूर्व कांग्रेसी नेता चन्द्रकांत कावलेकर ने भाजपा में प्रवेश किया और उप मुख्यमंत्री बन गए। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। दल-बदल संबंधी कानून गड्ढे में पड़ा है। नेताओं को अयोग्य ठहराए जाने का कोई भय नहीं है। वे तो अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसे राजा की तरह हैं, जो बार-बार विजयी होता रहेगा।
नेताओं की इस अक्षुण्ण शक्ति और नागरिकों की शक्तिहीनता का राज क्या है?
सरकार की शक्ति अब जीवन के इतने सोपानों में घुस चुकी है कि भारतीयों का शासन बड़ी सत्ता के हाथों में आ चुका लगता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि शराब, खनन और रियल एस्टेट जैसे कारोबारों में सत्ता की स्वीकृति चाहिए होती है। नेता इस बड़ी सत्ता के एजेंट हैं।
पार्टी बदलने वाले नेताओं के लिए नागरिकों का क्रोध या असंतोष कोई मायने नहीं रखता। वे तो व्यावसायिकों की तरह दल बदलने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन किसी नौकरी की तरह नहीं होता है। प्रजातंत्र में, राजनीति को उन लोगों के द्वारा चुना हुआ पथ माना जाता है, जो कुछ विशेष प्रकार के आदर्शों की पूर्ति के लिए एक स्वतंत्र दिशा खोजते हैं। परन्तु जब राजनीति ही आय का साधन बना ली जाती है, तो दलीय व्यवस्था का धराशायी होना जाहिर है। ऐसे में विचारधारा और आस्था अर्थहीन हो जाती हैं।
अवसरवादी लोग कभी नहीं हारते। वे चुनाव जीतते हैं। यह मायने नहीं रखता कि वे किस पार्टी का झंडा उठा रहे हैं। गोवा की राजनीति में ऐसे ही एक नेता हैं, जिन्होंने पिछले दो दशकों में छ: बार दल-बदल किया है। जिस दल की सरकार होती है, वे उसी में शामिल हो जाते हैं। दो माह पहले ही उन्होंने जब उप चुनाव जीता था, तब भाजपा ने उन पर अनेक आपराधिक आरोप लगाते हुए उनका विरोध किया था। लेकिन फिलहाल वे और उनकी पत्नी भाजपा में शामिल हैं। उनकी पत्नी तो मंत्री है। अगले चुनावों के लिए भी यह कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वे नहीं जीतेंगे। दलों में कोई अंतर नहीं है। सबका यही हाल है। वैसे दल बदलने की प्रथा की शुरुआत 1970 और 80 में इंदिरा गांधी के समय शुरू हुई थी। अब भाजपा ने इसका लाइसेंस ले लिया है। केन्द्र की प्रथा को राज्यों में शुरू कर लिया गया है।
भारत में जब दलों की विचारधारा ही अर्थ नहीं रख रही है, तो दलीय व्यवस्था का सर्वनाश होना तो स्पष्ट है। पूर्व कांग्रेसी नेता चन्द्रकांत कावलेकर ने भाजपा में प्रवेश किया और उप मुख्यमंत्री बन गए। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। दल-बदल संबंधी कानून गड्ढे में पड़ा है। नेताओं को अयोग्य ठहराए जाने का कोई भय नहीं है। वे तो अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसे राजा की तरह हैं, जो बार-बार विजयी होता रहेगा।
नेताओं की इस अक्षुण्ण शक्ति और नागरिकों की शक्तिहीनता का राज क्या है?
सरकार की शक्ति अब जीवन के इतने सोपानों में घुस चुकी है कि भारतीयों का शासन बड़ी सत्ता के हाथों में आ चुका लगता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि शराब, खनन और रियल एस्टेट जैसे कारोबारों में सत्ता की स्वीकृति चाहिए होती है। नेता इस बड़ी सत्ता के एजेंट हैं।
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