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पुरुषार्थ - अरविन्‍द राठौर कुलैथ ग्‍वालियर मोबाइल नम्‍बर - 8889278412

created May 24th 2020, 16:28 by 123Aravind


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आध्‍यात्मिकता के मार्ग में संघर्ष से पार होने के प्रयत्‍न को ही 'पुरुषार्थ' कहा जाता है। पुरुषार्थी को चिन्‍ता इस बात की नहीं होती कि अन्‍य कोई उससे विरोध, द्वन्‍द्व अथवा संघर्ष का वातावरण पैदा करता है बल्कि उसकी कोशिश यह होती है कि वह स्‍वयं उस दलदल में फँसे और यदि हो सके तो दूसरे को भी उससे निकाले। वह इस बात से व्‍याकुल नहीं होता कि दूसरा कोई उसका मुकाबला करता है अथवा उसकी निन्‍दा करके उसके व्‍यक्तित्‍व को आघात पहुँचाता है बल्कि उसका प्रयत्‍न यह होता है कि उसका अपना मन स्थिर रहे, वाणी निर्मल बनी रहे और सद्भावना से वातावरण सुगन्धित हो। वह सोचता है कि मर्यादा भंग हो, अनुशासन टूटे, पवित्रता पर अपवित्रता हावी हो और आसुरी तत्‍वों को बढ़ावा मिले बल्कि सदाचार, पवित्रता और सात्विकता की जयजयकार हो और वातावरण ऐसा बने कि जिसमें चहुँ ओर प्रसन्‍नता की लहर दौड़ उठे, सबके मन हर्ष से खिल उठें, सबमें भ्रातृत्‍व की भावना प्रधान हो और विश्‍व में प्राणी प्रेम से एक-दूसरे के निकट आयें।
इस आदर्श लक्ष्‍य अथवा मनोरथ को लेकर वह जहॉं अपने पुरुषार्थ पथ पर सुदृढ़तापूर्वक चलता है, वहॉं वह निष्‍पक्ष रूप से समालोचक बनकर सुधार की चेष्‍टा करता है तथा स्थिति परिवर्तन के लिए प्रयत्‍नशील भी हाेता है। इस प्रकार के संघर्ष से सही पुरुषार्थी निश्‍चेष्‍ट नहीं होता और निष्क्रियता को अपनाता है परन्‍तु हॉं, यदि इस संघर्ष में वह देखता है कि परिस्थितियों का आक्रमण, विकटताओं का विस्‍फोट और द्वन्‍द्व, द्वेष, दुर्भावना और दुर्साधना की बाढ़ अत्‍यन्‍त प्रबल है तो वह अपनी योगचर्या, आध्‍यात्मिक निष्‍ठा एवं दिव्‍य गुणों के विकास के पुरुषार्थ को अक्षुण्‍ण बनाये रखने के लिए कुछ समय के लिए स्‍वयं को एक ओर सुरक्षित कर लेता है।

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