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सॉंई टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्‍यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565

created Jan 13th 2021, 04:14 by lucky shrivatri


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जीवन जीने का एक क्रम होता है। एक क्रम-उम्र का शरीर का। एक क्रम-बुद्धि की परिपक्‍वता का। एक क्रम-मन की दृढ़ता का, संकल्‍प का। चूंकि तीनों क्रम मिलकर चलते हैं, अत: हमें इनका मिला-जुला एक ही क्रम मालूम पड़ता है। अलग-अलग समझने में कठिनाई होती है। एक क्रम प्रकृति का होता है। इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। अपने आप घटित होता रहता है। शेष तीनों क्रमों में हमारा कर्म भी अपनी भूमिका निभाता है और कर्म का फल प्राकृतिक क्रम से जुड़कर हमारे जीवन को चलाता है। इसीलिए जीवन को कर्म का प्रतिफल कहा गया है। जैसी करणी, वैसी भरणी। मन में एक इच्‍छा उठती है। शरीर उसे पूरी करता है। बुद्धि उसे निर्देश करती है। इच्‍छापूर्ति का अपना एक अनुभव अपनी विशिष्‍ट छाप मन पर छोड़ता है। यही छाप पुनरावृत्ति का कारण बनती है। पुनरावृत्ति ही कर्म में नियमितता का कारण बनती है। नियमितता ही धीरे-धीरे आदत का रूप लेती है। स्‍वभाव और संस्‍कार बनकर व्‍यक्तित्‍व का निर्माण करती है। संस्‍कारों की हमारे जीवन में यही भूमिका है। ये हमारे कर्म से जुड़े होते हैं अथवा कर्म के संचालक बनते है। हम भी कर्म को इन्‍ही के परिप्रेक्ष्‍य में देखतें है, समझते हैं। जीवन यात्रा का मार्ग तय करते है। कर्म के अनुरूप ही हम फल प्राप्‍त करते हैं। संस्‍कार जीवन में कर्म का स्‍थायी भाव पैदा करते हैं। अस्‍थाई कर्म संस्‍कार रूप नहीं होते। चिन्‍तनधारा को प्रभावित नहीं करते। संस्‍कार चिन्‍तनधारा को एक दिशा में बांधने वाले है। जीवन क्रम में इच्‍छा हैं, कर्म है, पुनरावृत्ति है। फिर इच्‍छा है। कई बार या अधिकांशत: कुछ कर्मों के साथ व्‍यक्ति जब लिप्‍त हो जाता है तो कर्म और पुनरावृत्ति ही रह जाते है। फिर कर्म, पुनरावृत्ति। इच्‍छा का नया धरातल ही छूट जाता है। जीवन किसी कर्म के कारागार में बांधकर रह जाता है। कर्म-जाल में फंस जाता है। इच्‍छा का क्षेत्र मन के वातावरण का क्षेत्र है। इच्‍छा इसी वातावरण के अनुरूप उठती है। संकल्‍प इस इच्‍छापूर्ति का नियंत्रक बनता हैं। पूरी करने योग्‍य है अथवा नहीं है। यह लक्ष्‍य की दृढ़ता पर निर्भर करता है। वास्‍तव में जो कुछ भी हम करते है, सोचते हैं, अनुभव करते हैं, इन्‍हीं का सार तो कर्म कहलाता है। हर कर्म के साथ परिणाम जुड़ा है, यह निश्चित है। हर कार्य के साथ एक कारण भी जुड़ा है। यह कार्य कारण भाव साथ चलता है। जो कुछ हमारे साथ अभी हो रहा है, वह हमारे ही कर्मों का परिणाम है। कर्म चाहे कुछ देर पहले का हो, कुछ साल पहले का हो अथवा पिछले जन्‍म का। इसका अर्थ यह भी है कि कर्म विचारपूर्वक भी किया जाता है, कर्म को बदला जा सकता है, शुद्ध किया जा सकता है, परिवर्तित किया जा सकता है। फिर गलत कहा है कि मनुष्‍य ही अपना भाग्‍यविधाता है। कर्म को समझ लेना ही जीवन को समझना है। जो कुछ हम अभी कर रहे है अथवा सोच रहे हैं, उससे आगे का कर्म प्रभावित होगा। वैसे ही परिणाम भी मिलेंगे। इस प्रकार कर्म की एक-एक कड़ी बड़ी जंजीर का रूप ले लेती है। व्‍यक्ति का स्‍वभाव उसी के अनुरूप होता जाता है।  

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