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Nirmal Competitive Classes, Morena By Upadhyay Sir (8269921498)

created Aug 13th 2022, 03:03 by RahulSharma24


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ऐसे हैं, जो सर्वविदित हैं। नोट:- कोष्‍ठक में उल्लिखित वाक्‍य को आलेखित किया जाये।
        विगत कुछ वर्षों से प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष बजट इधर कराधान करने की प्रवृत्ति आत्‍म संयम की सभी सीमाएँ लाँघती प्रतीत होती हैं। एक सप्‍ताह के दौरान केन्‍द्र सरकार ने अधिसूचनाओं के माध्‍यम से 900 करोड़ रुपए के प्रत्‍यक्ष कर तथा 1200 करोड़ रुपये के अप्रत्‍यक्ष कर लगा दिये जिससे चालू वित्‍त वर्ष की शेष अवधि में ही 1200 करोड़ रुपये का अतिरिक्‍त राजस्‍व प्राप्‍त होना अनुमानित है। इसके साथ ही यह भी घोषणा कर दी गई है कि पेट्रोलियम उत्‍पादों पर 25% प्रतिशत खाड़ी अधिभार वर्ष 1991-92 में भी जारी रहेगा। इसके पूर्व एक वर्ष के दौरान बजट इतर डाक तार टेलीफोन दरों में भी वृद्धि की गई थी तथा कुछ ही समय बाद रेल और सामान्‍य बजटों, के माध्‍यम से भारी कराधान किया गया। फिर पेट्रोलियम उत्‍पादों पर पच्‍चीस प्रतिशत खाड़ी अधिभार बढ़ाया गया। राज्‍य सरकारों ने जो नये कराधान किये, वे इसके अतिरिक्‍त हैं। यह सब (1) अभूतपूर्व है।
        इस बारे में कोई दो मत नहीं हो सकते कि भारतीय अर्थ-व्‍यवस्‍था की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। (जैसा कि वित्‍त मंत्री महोदय ने कहा है, वर्तमान वित्‍त वर्ष के प्रारंभ से ही वित्‍तीय स्थिति ठीक नहीं थी।) सरकारी खर्च और आय में अंतर बढ़ने से स्‍वदेशी और विदेशी ऋणों में अत्‍यधिक वृद्धि हो गई तथा उनके ब्‍याज की अदायगी का बोझ बहुत बढ़ गया। सात हजार करोड़ रुपये का अनुमानित बजट घाटा वित्‍त वर्ष के अन्‍त तक बढ़कर 14-15 हजार करोड़ रुपये तक पहुँच जाने की आशंका है। खाड़ी संकट (2) के कारण पेट्रोलियम उत्‍पादों के आयात का खर्च छ: हजार करोड़ रुपये बढ़ चुका है। औद्योगिक उत्‍पादन एवं निर्यातों में अपेक्षित वृद्धि के आसार नहीं। आयातों में एक सीमा से अधिक कटौती प्रति उत्‍पाद सिद्ध हुए बिना नहीं रहेगी। जैसा कि वित्‍त मंत्री महोदय ने कहा है, अब आसान लोकप्रिय निर्णयों का युग समाप्‍त हो गया है, किसी को यह गलतफहमी नहीं होना चाहिए कि पिछले कई वर्षों के असंतुलन के दुष्‍प्रभाव एक झटके में दूर हो जाएँगे, किन्‍तु यह आवश्‍यक है कि सरकार अर्थ-व्‍यवस्‍था को बचाने के लिए बिना समय नष्‍ट किए कदम उठाने प्रारंभ करे।
        यह सब (3) सही हो सकता है, किन्‍तु क्‍या इस तथ्‍य से इंकार किया जा सकता है कि बजट इतर कराधान केवल अलोकतांत्रिक तथा संसद की सर्वोपरिता की अवमानना है, किन्‍तु उससे बजट एवं वित्‍तीय प्रबंधन में गंभीर मूलभूत खामियों के भी स्‍पष्‍ट संकेत मिलते हैं? क्‍या यह सही नहीं है कि कराधान किसी भी स्‍तर पर किया जावे, अंतिम विश्‍लेषण में उसका बोझ उपभोक्‍ताओं को ही उठाना पड़ता है क्‍या विगत एक सप्‍ताह के दौरान किये गये कराधान का मुद्रा-स्‍फीति और मूल्‍य-स्‍तर पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा? यह कैसी अर्थ-व्‍यवस्‍था और कैसा आर्थिक नियोजन है कि धनी और (4) भी अधिक धनी होता जाता है तथा आर्थिक रूप से अशक्‍त वर्गों तक आर्थिक विकास के लाभ नहीं पहुँच पाते ? आज सर्वोपरि आवश्‍यकता अर्थ-व्‍यवस्‍था एक आर्थिक नियोजन की मूलभूत प्राथमिकताओं को सौद्देश्‍य ढंग से निर्धारित किये जाने की है, तदर्थ निर्णयों से अर्थ-व्‍यवस्‍था में किसी दूरगामी सुधार की आशा नहीं की जा सकती। वस्‍तुत: कमर तोड़ती महंगाई से हाहाकार कर रही जनता पर कर भार में कोई भी वृद्धि निश्चित रूप से अमानवीय है।
        हम संक्राति काल से गुजर रहे हैं जिसमें कि कई परस्‍पर विरूद्ध आदर्श अपनी-अपनी जगह बनाने में प्रयत्‍नशील हैं। हम कैसी समाज व्‍यवस्‍था चाहते हैं यह प्रश्‍न अक्‍सर पूछा जाता है।  

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