eng
competition

Text Practice Mode

101% Speed & Accuracy Purifier

created Oct 25th 2017, 11:24 by NavneetBhardwaj2696


0


Rating

871 words
27 completed
00:00
संकटमोचन हनुमानाष्टक
बाल समय रवि भक्षि लियो तब,
तीनहुं लोक भयो अंधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को,  
यह संकट काहु सो जात टारो।
देवन आनि करी विनती तब,
छांड़ि दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो।। 1 ।।
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि,
जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महामुनि शाप दियो तब,
चाहिय कौन बिचार बिचारो।
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो।। 2।।
अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बतिहौ हम सों जु,
बिना सुधि लाये इहां पगु धारो।
हेरि थके तट सिंधु सबै तब,  
लाय सिया सुधि प्रान उबारो।  
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ।। 3 ।।
रावन त्रास दई सिय को तब,
राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु,
जाय महा रजनीचर मारो।
चाहत सीय अशोक सो आगि सु,   
दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो।। 4 ।।
बाण लग्यो उर लछिमन के तब,
प्रान तज्यो सुत रावन मारो।
लै गृह वैद्य सुषेन समेत,  
तबै गिरि द्रोण सु-बीर उपारो।
आनि सजीवन हाथ दई तब,  
लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ।। 5।।
रावन युद्ध अजान कियो तब,
नाग की फांस सबै सिर डारो।
श्री रघुनाथ समेत सबै दल,
मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगेस तबै हनुमान जु,
बन्धन काटि सुत्रास निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ।। 6।।
बंधु समेत जबै अहिरावण,
लै रघुनाथ पताल सिधारो।  
देविहिं पूजि भली विधि सों बलि,
देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो।
जाय सहाय भयो तब ही,
अहिरावण सैन्य समेत संहारो।
को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ।। 7 ।।
काज किए बड़े देवन के तुम,  
बीर महाप्रभु द्खि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को,
जो तुमसों नहिं जात है टारो।
बेगि हरौ हनुमान महाप्रभु,
जो कछु संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो।। 8।।
 
दोहा
लाल देह लाली लसे,
अरू धरि लाल लंगूर।
बज्र देह दानव दलन,
जय जय जय कपि सूर।।
 
श्री बजरंग बाण
दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीत ते,
विनय करें सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ,
सिद्ध करें हनुमान।।
जय हनुमन्त सन्त हितकारी।
सुन लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब कीजै।
आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु महिपारा।
सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका।
मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषन को सुख दीन्हा।
सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु महं बोरा।
अति आतुर जम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार मारि संहारा।
लूम लपेट लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई।
जय जय धुनि सुरपुर में भई।।
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी।
कृपा करहु उर अन्तर्यामी।।
जय जय लखन प्राण के दाता।
 आतुर होई दु:ख करहु निपाता।।
जै गिरिधर जै जै सुख सागर।
सुर समूह समरथ भटनागर।।
ओयम् हनु हनु हनुमन्त हठीले।
बैरिहि मारु बज्र की कीले।।
गदा बज्र लै बैरिहिं मारो।
महाराज प्रभु दास उबारो।।
ऊंकार हुंकार महाप्रभु धावो।
बज्र गदा विलम्ब लावो।।
ओयम् ह्नीं ह्नीं हनुमन्त कपीसा।
ओयम् हुं हुं हुं हनु अरि उर शीशा।।
सत्य होहु हरि शपथ पायके।
राम दूत धरु मारु जायके।।  
जय जय जय हनुमन्त अगाधा।
दु:ख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा।
नहिं जानत हौं दास तुम्हारा।।
वन उपवन मग गिरि गृह माहीं।
तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।
पायं परौं कर जोरि मनावौं।  
येहि अवसर अब केहि गोहरावौं।।
जय अंजनि कुमार बलवन्ता।
शंकर सुवन वीर हनुमन्ता।।
बदन कराल काल कुल घालक।
राम सहाय सदा प्रतिपालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर।
अग्नि बैताल काल मारी मन।।
इन्हें मारु तोहि शपथ राम की।
राखउ नाथ मरजाद नाम की।।
जनक सुता हरि दास कहावो।
ताकी शपथ विलन्ब लावो।।
जै जै जै धुनि होत अकाशा।
सुमिरत होत दुसह दु:ख नाशा।।
चरण शरण कर जोरि मनावौं।
यदि अवसर अब केहि गोहरावौं।।
उठु उठु चलु तोहि राम दोहाई।
पांय परौं कर जोरि मनाई।।
ओयम्  ओयम् चं चं चं चपल चलंता।
ओयम् हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ओयम् हं हं हांक देत कपि चंचल।
ओयम् सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को तुरत उबारो।
सुमिरत होय आनंद हमारो।।
यह बजरंग बाण जेहि मारै।
ताहि कहो फिर कौन उबारै।।
पाठ करै बजरंग बाण की।
हनुमत रक्षा करैं प्राण की।
यह बजरंग बाण जो जापै।
ताते भूत प्रेत सब कांपै।।
धूप देय अरु जपै हमेशा।
ताके तन नहिं रहै कलेशा।।
दोहा - प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै,  
    सदा धरै उर ध्यान।
    तेहि के कारज सकल शुभ,  
    सिद्ध करैं हनुमान।
श्री राम स्तुति
श्री राम चन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं।
नवकंज-लोचन कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणं।।
कन्दर्प अगणित अमित छपि नवनील-नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नैमि जनक सुतावरं।।
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्यवंश-निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कंद कौशलचन्द दशरथ-नन्दनं।।
सिर मुकट कुण्डल तिलक चारु उदारु अंग विभूषमणं।
आजानु-भुज-शर-चाप-धर, संग्राम जित-खरदूषणं।।
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय-कंज निवास कुरु, कामादि खलदल-गंजनं।।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान सील  सनेह जानत रावरो।।
एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियं हरषी अली।
तुलसी भवनिहि पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
दोहा- जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे।।
 
 
 
 

saving score / loading statistics ...