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BUDDHA ACADEMY HIGH COURT MAINS -RISHI RICHHARIYA

created Nov 17th 2017, 05:52 by RishiRichhariya


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7वीं-8वीं कक्षा में हमारे स्‍वतंत्रता सेनानी प्रचार रहे नानाजी ने गाँधी जी कुछ किताबें पढ़ने को दी। पढ़ा तो लगा की गांधी जी के पास अच्‍छी शिक्षा सहित सब कुछ था। चाहते तो वे अच्‍छा जीवन बिता सकते थे लेकिन देश की जनता के लिए उन्‍होंने जो किया उनसे उन्‍हें सबसे ज्‍यादा संतोष खुशी मिली। तब समाज सेवा का कुछ विचार बीच रूप में पड़ा। जब मैं 11वीं-12वीं में पहुँचा तो लगा की जीवन की शुरुआत है। कुछ ऐसी ही कि जाए की जिसमें समाज सेवा भी शामिल हो। तब मैंने डॉक्‍टर बनने का मन बनाया। मैं शुरू से ही बहुत गंभीर किस्‍म का युवा था कॉलेज के दिनों मे मैं गंभीरता से अध्‍ययन में लगा रहता। मेरे विचार भी  उस तरह के थे तो मेरे साथी मुझे बुढ़ा कहते थे तो कोई शरारत बगैराह का सवाल ही नहीं था। मेडिकल के मेरे पहले साल मे मेरी रैगिंग हुई। दूसरे साल में छात्र सोचते थे कि हमारी रैगिंग हुई तो हम भी दूसरे की रैगिंग लेंगे पर मैंने सोचा की इसी बंद कराने का यही अवसर है मैं प्रयास करके इस प्रथा का अंत करा दिया। इसी तरह ज‍ब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई तो मैंने आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए आंदोलन किया था। एक्टिीविज्‍म शुरू से रहा बाद में गुटखे पर पांबदी लगाने सिनेमा में फिल्‍म प्रदशर्न के पहले कैंसर के रोगी के जरिए तम्‍बाकू के सेवन के विरोध में फिल्‍म दिखाने और सिगरेट के पैक्‍ट परिणाम के चित्र देने के लिए मैंने हर तरह का संषर्घ किया और सफलता पाई। विद्यार्थी जीवन में मेरे प्रोफेसर का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी समय की पाबंदी कमाल की थी। वह कहते थे कि एक डॉक्‍टर को समय का अत्‍याधिक पाबंद होना चाहिए। मेडिकल प्रोफेसन में आयत-पाया कि मेडिकल अध्‍ययन के लिए सामाग्री तक भारतीय विद्यार्थी की पहुँच जरा कठिन थी। 1000 डॉलर की किताब भारतीय छात्र नहीं खरीद सकते थे। मैंने अपने नेटवर्क का इस्‍तेमाल करके विश्‍व के नामी-ग्रामी लेखकों से अनुरोध किया सबने अपने रॉयलटी छोड़ दी और समाज सेवा के नाम पर हम किताब तैयार की जो सबसे सर्वश्रेष्‍ठ टैक्‍सट् बुक बनी। उसे सिर्फ 100 डॉलर में बेचा। उसमें किमती ग्‍लॉस्‍म कागज थे बहुत सारे रंगीन चित्र थे मेडिकल कर्लर पिक्‍चरर्स हो तो समझ नहीं आता। वह देश में अनूठा प्रोजेक्‍ट जहाँ तक इंटरनेशल-जनरल ऑफ निक सर्जरी की बात तो उसकी कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। जब भारतीय शोध कर्ता अपना काम प्रकाशित करना चाहते हैं तो कई समस्‍याएं आती हैं। हमारी अंग्रेजी भाषा की समस्‍यां होती है इसलिए इंटरनेशल जनरल कई बार भारतीय लेखकों खारिज कर देती है मुझे लगता था कि यदि हमने भारत के लोगों को बढ़ावा देना है अच्‍छा प्‍लेटफाॅर्म देना होगा। !धन्‍यवाद!

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