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Allahabad high court hindi mangle

created Nov 18th 2017, 05:47 by AmitKSingh


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वर्ष 1998 की बात है। इशियाई खेलों में मणिपुर के डिंग्को सिंह ने बॉक्सिंग में गोल्ड मेडल जीता। मणिपुर में तो यह उत्सव का दिन था। डिंग्कों की इस सफलता से राज्य की एक किशोरी बेहद रोमांचित हूई।
वह एक किसान की बेटी थी, जिसे यूं तो उसके भीतर एक बॉक्सर बनने की चाहत पैदा कर दी। उसने कल्पना में खुद को बॉक्सिंग करते देखा, तो उसने अवने भीतर एक सनसनी महसूस की। उसने सोचा, वह भी उनकी तरह अपने प्रांत और देश का नाम रोशन करेगी। अगले ही दिन वह समय के चर्चित कोच एम.नर्जित सिंह के पास पहुंची और बोली ‘सर मुझे मुक्केबाजी सीखनी है।’ सिंह ने हैरत भरी नजरों से उस किशोरी को देखा। कुंछ देर गौर से देखते रहे फिर बोला, ‘नहीं, मैं आपको नहीं सिखा सकता।’ किशोरी ने खूब मिन्नतें की, लेकिन कोच नहीं माने। वह वापस लौट आई, पर निराश नहीं हुई। वह दूसरे कोच के पास जा पहुंची। सिंह की ही तरह दूसरे कोच ने भी इंकार कर दिया। उसने कहा, ‘तुम बहुत दुबली-पतली हो, ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाओगी।’ पर उस किशोरी की जिद के आगे कोच को अपना फैसला बदलना पड़ा। वह उसे कोचिंग देने के लिए तैयार हो गए। वह किसोंरी दिन-रात मेहनत करने लगी। वह थी मैरी कॉम, जो बॉक्सिंग में अपनी उपलब्धियों के कारण आज सबके लिए एक मिसाल बन गई है। दरअसल, मैरी कॉम ने कभी अपने पैर वापस नहीं खींचे। जो एक बार ठान लिया, सो ठान लिया। ठीक है कि शुरू में उन्हें बहुत कुछ झेलना पड़ा। तमाम तरह की बाधाएं आईं, लेकिन उन्होंने इन सभी पर ध्यान नहीं दिया। उनकी नजर अपने लक्ष्य पर टिकी रही। अक्सर किशोर मन कईं तरह स्वप्न देखते हैं, लेकिन वे सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास नहीं करते हैं। थोड़ा-थोड़ा हाथ-पैर मारते है और असफलता मिलने पर निराश होकर बैठ जाते हैं। उन्हें लगता है यह उनके लिए संभव नहीं है या फिर उनकी किस्मत में ऐसा शायद नहीं लिखा है। यह एक गलत सोच है। अगर मैरी कॉम एम.नर्जित सिंह द्वारा इंकार करने पर निराश होकर बैठ जाती, तो शायद आज वह इस मुकाम पर नहीं पहुंचतीं।
कई रास्ते बंद मिलते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम हताश होकर लौट जाएं। हमें फिर प्रयास करना चाहिए, क्योंकि एक रास्ता बंद हो जाता है, तो दूसरा जरूर खुलता है। थोड़ी देर जरूर हो सरती है, पर हमें धैर्य रखना होगा। जब तक अपना लक्ष्य हासिल हो, व्यक्ति को पूरे धैर्य और लगन के साथ अपने काम में जुटे रहना चाहिए। यह कबी नहीं सोचना चाहिए कि हमारे पास साधन की कमी है। मैरी कॉम का जीवन तो अभावों से भरा था, लेकिन बॉक्सिंग में शिखर पर पहुंचने की जिद ने इस कमी को कामयाबी की राह में आड़े आने ही नहीं दिया। अगर कोई नौजवान ठान ले कि उसे कुछ करना है, तो संसाधन की व्यवस्था भी हो ही जाती है। सच तो यह है कि ऐसे धुनी लोगों की मद्द लोग सहायता करने लगते हैं, जो कभी मजाक उड़ाया  करते थे। जनसका लक्ष्य बड़ा हो, उसे उन लोगों की बातें नहीं सुननी चाहिए, जो केवल हतोत्साहित करते रहते है। कुछ अपने लोग अनजाने में ऐसा करने लगते हैं। जैसे मॉरी कॉम को उनके परिवार के लोगों ने ही बॉक्सिंग में आने से रोका था। उन्होंने उनकी बातें नहीं सुनीं और अपना ध्यान अनपे लक्ष्य पर केद्रिंत रखा। आज उन्हें बॉक्सिंग में उतरने से रोकने वाला परिवार उन पर गर्व करता है। भारत युवायों का देश है। अगर हर युवा अपने जीवन में एक बड़ा लक्ष्य चुने और उसे हासिल करने के लिए जुट जाए, तो देश में असाधारण परिवर्तन हो सकते हैं।
प्रेरणादायी माहौल बनाएं, जिससे पैरेंट्स और कोच दूसरे साथियों से तुलना करने की बजाय बच्चों या किशोरों द्वारा खेलों में स्किल डेवलप करने और व्यक्तिगत विकास पर जोर दें। इससे उसका सिर्फ आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि खेलों के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ती है (कभी-कभार कुछ बच्चे रुचि होने की बजाय किसी निश्चित समय तक ही उनकी खास खेल में भागीदारी तय करें। उन्हें यह भी बताएं कि यदि उनकी रुचि उस खास खेल में नहीं हैं, तो वे किसी दूसरे खेल को बी ट्राई कर सकते हैं। संसाधनों की कमी होने पर रुचि होने के बावजूद बच्चे अच्छी तरह से नहीं खेल पाते हैं। उन्हें खेलों के लिए चरूरी संसाधन और सुविधाएं लगातार दी जाएं।
धर्म सदाचार और नैतिक मूल्यों के प्रति हमें आग्रही बनाता है। धर्म पर व्यक्ति और समाज का जीवन टिका है। धर्म को उपासना पद्धतिं, मत-मजहब के साथ नहीं जोड़ सकते। धर्म एक ही है। आप उसे मानव धर्म कह सकते हैं या व्यापक रूप देना है तो वह सनातन धर्म है। बाकी धर्म नहीं, मत-मजहब या संप्रदाय हैं। वे धर्म की श्रेणी में नहीं आते। धर्म के साथ व्यापक धारणात्मक व्यवस्था जोड़िए। धर्मनिरपेक्ष शब्द ने देश को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। धर्मनिरपेक्षता शब्द आजादी के बाद का सबसे बड़ा क्षूठ है। व्यवस्था जब किसी, मत, मजहब या संप्रदाय के प्रति आग्रही हकर सर्वपंथ समभाव के साथ आगे बढ़ेगी तभी आदर्श होगी। धर्म कर्तव्य, सदाचार और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। अगर किसी व्यवस्था को इस सबसे निरपेक्ष करेंगे को फिर वह अकर्मण्य ही होगी। सदाचार से निरपेक्ष व्यवस्था क्या होगी, दुराष्ट्र की होगी। नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष व्यवस्था क्या होगी, पापाचार होगी। ब्रह्मांड में चर और अचर जो भी है उसका अपना धर्म है। वायु अपने धर्म का निर्वाह नहीं करेगी और जल अनपे धर्म का निर्वाह नहीं करेगा तो क्या व्यवस्था संचलित हो पाएगी? सबकी अपनी उपासना पद्धति है। हम किसी पर अपनी आस्था नहीं थोप सकते। मैं तिलक लगाता हूं, बहुत लोगों को यह अच्छा नहीं लगता होगा, बहुत लोगों को अच्छा भी लगता होगा, लेकिन मैं कहता हूं कि इस कर्मकांड का वैज्ञानिक आधार और मैं इसीलिए तिलक धारण करता हूं। हमारे शरीर को संतुलित करने वाली तीन प्रमुख नाढ़ियां इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, इन तीनों के मिलन स्थल-कपाल पर तिलक लगता है। विपरीत तत्वों के मिलना का जो स्थल होता है। वहां ऊर्जा उत्पन्न होती है। उस ऊर्जा का उपयोग सही कर सकें, अंतःकरण की ओर प्रेरित कर सका उपयोग लोककल्याण के लिए कर सकें, आध्यात्मिक ऊर्जा का उपयोग आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कर सकें, इसलिए हम तिलक धारण करते हैं। वह सौंदर्य का प्रतीक होकर हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा और कर्मकांड से जुड़ा है। इसे पोंगापंथ नहीं मान सकते। हां, उसेक नाम पर चूल रही जो रूढिवादिता है या कर्मकांड के नाम पर जो पाखंड है उसे रोका जाना चाहिए। हम घर में तुलसी का पौधा लगाते हैं। तुलसी का पौधा लगाना पाखंड है उसे रोका जाना चाहिए। तुलसी का पौधा लगाना पाखंड नहीं। आजकल डेंगू का प्रकोप है पर जो तुलसी का काढ़ा रोज पिएगा, वह डेंगू से बचा रहेगा। बहुत सारे लोगं को तुलसी पर आपत्ति होगी, लेकिन यह पाखंड नहीं। यह सनातन धर्म परंपरा का वैज्ञानिक आधार है। हम रक्षासूत्र क्यों बांधते हैं हाथ में? रक्षासूत्र पाखंड का प्रतीक नहीं। आयुर्वेद में वात, पित्त और कफ प्रतीख हैं। वैद्य सबसे पहले इन तीनों का संतुलन ही देखते हैं। इस तीनों के संतुलन का आधार है रक्षा सूत्र। बहुत से लोग उसे दूसरे तरीके से बांधते हैं। यह तो बुद्धि का अंतर है। हमारा धर्म सनातन है। यह आदि घर्म है। यह सृष्टि के साथ चला धर्म है। इसमें कट्टरता तो हो ही नहीं सकती, लेकिन यह तो अजीब बाद है कि कोई मेरे गाल पर एक थप्पड़ मारे और फिर बी मैं कहूं कि लो दूसरा गाल भी आगे कर रहा हूं। यह तो कायरता है। कोई थप्पड़ मारे तो उसका जवाब तो उसी रूप में देना चाहिए। साज को पुरूषार्थी बनाना चाहिए, कायर नहीं। भगवान राम नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, पर उन्हें शस्त्र उठाना पड़ा। भगवान कृष्ण बी नहीं चाहते थे कि महाभारत हो। दुर्योदन द्वारा बंधक बनाने के प्रयास के बावजूद उन्होंने समझौते के रास्ते बंद नहीं किए, लेकिन महाभारत हुई और चाहते हुए बी उन्हें अस्त्र उठाना पड़ा। हम कितना भी चाहें कि आतंकवाद का समाधान शांति से हो, लेकिन अंततः हमें सुरक्षा बलों को शस्त्र उठाने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। इसको सनातन धर्म की उदारता के साथ जोड़कर नहीं देख सकते। उदारता, सहिष्णुता सज्जनों के साथ होती है, दुर्जनों के साथ नहीं। जो दुर्जन हैं, लोक कल्याण के मार्ग में बाधक हैं, राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करते हैं, एकता और अखंडता को चुनौती देते हैं वे शांति से नहीं मानेंगे। वे जिस रास्ते से-जिस तरीके से समझोगें उतसे समझाना पड़ेगा। धर्म और राजनीति, दोनों के उद्देश्य समान हैं। जब उद्देश्य में विरोधाभास हो, एक उत्तरी ध्रुव हो और एक दक्षिणी तो कठिनाई होती है। यहां दोनों का उद्देश्य लोक कल्याण के पथ पर आगे बढ़ना है। सत्ता उपभोग की वस्तु नहीं। सत्ता लोक कल्याण का माध्यम है। एक पीठ के आचार्य के रूप में भी हम उसी कल्याणकारी अभियान से चुड़े हैं। वहां पर धर्म एक माध्यम है। और यहां राजनीति एक माध्यम है। धर्म और राजनीति परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। यह समझने की आवश्यकता है कि धर्म एक धीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है। दोनों को अलग नहीं कर सकते। भारत पर असहिष्णुता आरोप वे लगाते हैं जो उपनी बुद्धि बेचकर उसका बाजारीकरण करते हैं।
 

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