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इस समय हम बच्चों को बुद्धिप्रधान जीवन जीना सीखा रहे हैं। आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी को यह बात तो समझ में आ रही है कि यह घोर परिश्रम का युग है। यदि कुछ असामान्य पाना चाहें तो सीमाएं तोड़कर मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन एक दिन ऐसा परिश्रम नशा बन जाता है और जो भी आप उपलब्ध करते हैं उसमें नुकसान भी होता है। स्वास्थ्य का नुकसान, संबंधों का नुकसान... ये सब परिश्रम को नशा बना लेने के परिणाम हैं। शास्त्रों में लिखा है ज्ञाननिष्ठा और श्रमनिष्ठा एक साथ होनी चाहिए। इसका मतलब बच्चों को छोटे-छोटे काम बचपन से सिखाए जाएं। आज के बच्चे 14-14 घंटे काम करते हैं, पर ये 14 घंटे उन्हें निचोड़ रहे हैं। उनका पूरा व्यक्तित्व ऐसा लगता है जैसे चूस लिया गया हो, क्योंकि शुरू से हम उन्हें काम करने की आदत डालते नहीं हैं। जो दैनिक काम स्वयं करेगा वह प्रसन्न भी ज्यादा रहेगा, अधिक समय तक रहेगा और जो दूसरों पर आधारित है वह व्यथित भी होगा, अशांत भी रहेगा। आज बहुत कम बच्चे होंगे जो सुबह अपना बिस्तर खुद समेटते हों। बहुत कम लोग होंगे जो अपने अंतर्वस्त्र स्वयं धो लेते होंगे। अब तो पानी पीने के लिए भी कोई सहयोगी लगता है। हमने बच्चों को छोटे-छोटे अपने ही काम करने के अभ्यास से दूर कर दिया है। बेशक वो पढ़-लिखकर बड़ा काम, बड़ा परिश्रम करेंगे, लेकिन वह श्रम उन्हें थकाएगा। इसलिए बच्चों को यह समझाया जाए कि कुछ तयशुदा काम उन्हें ही करने हैं। ऐसा सिखाकर आप उनकी बहुत बड़ी मदद कर रहे होते हैं, जो बड़े होने पर उनके काम आएगी।
