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मतदाता की सुविधा के नाम पर एक कानून बनाया गया है- नोटा। यानी मतदान करते वक्त यदि मतदाता असमंजस में है कि वोट किसे दे? उसे कोई प्रत्याशी सुपात्र नजर ही नहीं आता। तो वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा का बटन दबा सकता है। नोटा अर्थात् इनमें से कोई भी नहीं। इसी बटन के साथ छेड़छाड़ का आरोप सर्वाधिक चर्चा में आ
या। भले ही सारे आरोप झूठे पाए गए। नोटा का प्रभाव किसी ने नहीं सोचा था। अब तक जीतने वाले प्रत्याशी को आमतौर पर 30-40 प्रतिशत मत मिलते थे। नोटा ने इस औसत को बुरी तरह प्रभावित कर डाला। लोकतंत्र की अवधारणा ही खतरे में पड़ गई। जबकि नोटा का बटन दबाना फैशन बन गया। बहुकोणीय संघर्ष में तो स्थिति बदतर हो जाती है। यदि मतदान औसत 70 प्रतिशत रहे तो जीत का औसत 25-30 प्रतिशत का ही आता है। बहुकोणीय चुनाव में यह प्रतिशत और भी कम हो जाएगा। मान लें 70 प्रतिशत मतदान में 10 प्रतिशत मतदाता ने नोटा बटन दबाया। तब मतदान वास्तव में 60 प्रतिशत ही रह गया। बहुकोणीय संघर्ष में तो जीत 20 प्रतिशत तक भी पहुंच सकती है। द्विपक्षीय में भी 25 प्रतिशत नहीं हो पाएगी। यही बहुमत की जीत मानी जाएगी। जिसको 75-80 प्रतिशत मतदाता ने वोट ही नहीं दिया, वही उसका जनप्रतिनिधि हो जाएगा। जैसे-जैसे मतदाता का प्रतिशत कम होगा, जनप्रतिनिधि बहुमत के स्थान पर अल्पमत का होता जाएगा। यही हाल बढ़ते नोटा के प्रयोग से भी स्पष्ट रूप में परिलक्षित होंगे। इसलिए बेहतर यह होगा कि मतदाता नोटा का विकल्प बहुत ही सोच-समझकर और अंतिम हथियार के रूप में काम ले। बढ़ते जनदबाव के मध्य सरकार और चुनाव आयोग ने मतदाता को नोटा का अधिकार तो दे दिया लेकिन जब तक वह परिणाम तय न करे, तब तक उसका होना न होना बराबर है। ऐसे में सरकार को यह प्रावधान करने पर भी विचार करना चाहिए कि यदि नोटा के मतों की संख्या विजयी उम्मीदवार से भी ज्यादा है तब चुनाव रद्द माना जाये। इसी तरह अन्य विकल्प भी सोचे जा सकते हैं तभी सही मायनों में नोटा की सार्थकता सिद्ध होगी।
या। भले ही सारे आरोप झूठे पाए गए। नोटा का प्रभाव किसी ने नहीं सोचा था। अब तक जीतने वाले प्रत्याशी को आमतौर पर 30-40 प्रतिशत मत मिलते थे। नोटा ने इस औसत को बुरी तरह प्रभावित कर डाला। लोकतंत्र की अवधारणा ही खतरे में पड़ गई। जबकि नोटा का बटन दबाना फैशन बन गया। बहुकोणीय संघर्ष में तो स्थिति बदतर हो जाती है। यदि मतदान औसत 70 प्रतिशत रहे तो जीत का औसत 25-30 प्रतिशत का ही आता है। बहुकोणीय चुनाव में यह प्रतिशत और भी कम हो जाएगा। मान लें 70 प्रतिशत मतदान में 10 प्रतिशत मतदाता ने नोटा बटन दबाया। तब मतदान वास्तव में 60 प्रतिशत ही रह गया। बहुकोणीय संघर्ष में तो जीत 20 प्रतिशत तक भी पहुंच सकती है। द्विपक्षीय में भी 25 प्रतिशत नहीं हो पाएगी। यही बहुमत की जीत मानी जाएगी। जिसको 75-80 प्रतिशत मतदाता ने वोट ही नहीं दिया, वही उसका जनप्रतिनिधि हो जाएगा। जैसे-जैसे मतदाता का प्रतिशत कम होगा, जनप्रतिनिधि बहुमत के स्थान पर अल्पमत का होता जाएगा। यही हाल बढ़ते नोटा के प्रयोग से भी स्पष्ट रूप में परिलक्षित होंगे। इसलिए बेहतर यह होगा कि मतदाता नोटा का विकल्प बहुत ही सोच-समझकर और अंतिम हथियार के रूप में काम ले। बढ़ते जनदबाव के मध्य सरकार और चुनाव आयोग ने मतदाता को नोटा का अधिकार तो दे दिया लेकिन जब तक वह परिणाम तय न करे, तब तक उसका होना न होना बराबर है। ऐसे में सरकार को यह प्रावधान करने पर भी विचार करना चाहिए कि यदि नोटा के मतों की संख्या विजयी उम्मीदवार से भी ज्यादा है तब चुनाव रद्द माना जाये। इसी तरह अन्य विकल्प भी सोचे जा सकते हैं तभी सही मायनों में नोटा की सार्थकता सिद्ध होगी।
