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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP)

created Feb 10th 2018, 10:26 by AnujGupta1610


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खड़गसिंह ने कहा कि बाबा आज्ञा कीजिए मैं आपका दास हूं, बस घोड़ा दूंगा अब घोडे का नाम लो। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट करना। खड़गसिंह का मुंह आवश्‍चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्‍वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट करना। खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ सका। हारकर उसने अपनी आंखे बाबा भारती के मुख पर गड़ा दी और पूछा, बाबाजी इसमें आपको क्‍या डर है ? सुनकर बाबा भारती ने उत्‍तर दिया, लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्‍वास करेंगे। यह कहते-कहते उन्‍होंने सुलतान की ओर से इस तरह मुंह मोड लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो। बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्‍द खड़गसिंह के कानोंइ में उसी प्रकार गूंज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊंचे विचार हैं, उन्‍हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख खिल जाता था। कहते थे, इसके बिना मैं रह सकूंगा इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर की रेखा दिखाई पड़ती थी। उन्‍हें केवल यह ख्‍याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्‍वास करना छोड़ दे। ऐसा मनुष्‍य, मनुष्‍य नहीं देवता हैं। रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुंचा। चारों ओर सन्‍नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। मंदिर के अंदर कोई सुनाई देता था। खड़गसिंह सुल्‍तान की लगाम पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्‍तबल के फाटक पर पहुंचा। फाटक खुला था। किसी समय वहां बाबा स्‍वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्‍हें किसी चोरी, किसी डाके का भय था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुल्‍तान को उसके स्‍थान पर बांध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आंखों में पश्‍चाताप आंसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्‍नान किया। उसके पश्‍चात इस प्रकार जैसे कोई स्‍वप्‍न में चल रहा हो, वे अस्‍तबल की तरफ बढ़े। परंतु फाटक पर पहूंचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पांवों को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गए। सुलतान ने अपने स्‍वामी की पदचाप को पहचान लिया और जोर से हिनहिनाया। बाबा आश्‍चर्य और प्रसन्‍नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्‍यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बि
छड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुंह पर थपकियां देते। फिर वे संतोष से बोले, अब कोई दीन-दुखियों से मुंह मोड़ेगा।  

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