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पश्चिम एशिया के तीन देशों की यात्रा पूरी कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत लौट चुके हैं। उनके इस दौरे को पश्चिम एशिया में भारत के बढ़ते कद के रूप में देखा जा रहा है। यह गलत भी नहीं है। एक तरफ प्रधानमंत्री ने पूर्वी एशियाई देशों के साथ एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत संबंधों को नई गरमाहट दी है, तो दूसरी तरफ पश्चिम एशिया पर भी बराबर की नजर रखी है। इसकी तस्दीक इससे भी होती है कि इस साल 26 जनवरी को बतौर मुख्य अतिथि आसियान के शासनाध्यक्ष भारत आए, तो पिछले साल अबू धाबी के युवराज माेहम्मद बिन जायद अल नाहयान राजपथ पर मौजूद थे। हाल-फिलहाल इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भी भारत यात्रा हुई थी। साफ है, पश्चिम एशिया व खाड़ी के देशों को लेकर भारत अपनी विदेश नीति को नई गति दे रहा है। ऐसा किया जाना जरूरी है। यह हमारे हित में है और अमन-पसंद देशों के हक में भी। इसकी पहली वजह तो यह है कि अफगानिस्तान आतंकी वारदातों से वक्त-बेवक्त अस्थिर होता रहा है और पहली बार अमेरिका ने वहां भारत की भूमिका को मान्यता दी है। ऐसे में, खाड़ी देशों में शांति व संतुलन साधने से हमारा वैश्विक कद ऊंचा उठेगा। इस दिशा में हम आगे बढ़े भी हैं। भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझाौता हुआ है, जिसकी महत्वपूर्ण धुरी चाबहार बंदगाह है। इतना ही नहीं, भारत सरकार की कोशिश यही रही है कि संयुक्त अरब अमीरत (यूएई) के याथ सामरिक साझेदारी आगे बढ़े। प्रधानमंत्री मोदी की यह यूएई यात्रा इसी कड़ी का हिस्सा थी। इस्लामी देशों में जो नए समीकरण बने रहे हैं, उसमें भी यह आवश्यक है कि भारत और यूएई की दोस्ती नया मुकाम हासिल करे। रही बात ओमान की, तो वह हमारा पुराना दोस्त रहा है। इसका पता इससे भी चलता है कि ओमान में 300 साल पहले एक शिव मंदिर बना था, जो गुजरात से गए भारतीय ने बनाया था। मगर प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा सिर्फ पुराने रिश्तों की वजह से लंबे समय तक याद रखा जाने वाला दौर नहीं है। असल में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में जिस तरह से भारत की भूमिका को सराहना मिली है और प्रशांत महासाागर में चीन का दखल बढ़ा है, उसे देखते हुए यह देश भारत का महत्वपूर्ण मित्र साबित हो सकता है।
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