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created Aug 14th 2018, 10:09 by GuruKhare
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आजकल आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर चर्चाए गरम हैं। सरकार भी आरक्षण को लेकर नई उठती मांगों को शांत करने के लिए शायद कुछ ऐसी ही पेशबंदी करती नजर आ रही है। यह बहस कुछ ऐसे आक्रामक ढंग से उठाई जा रही है कि आरक्षण की व्यवस्था के कुछ समर्थकों की भी दलीलें कमजोर पड़ती दिख रही हैं या वे कुछ रक्षात्मक मुद्रा में नजर आने लगे हैं। लेकिन कई स्वाभाविक सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन, आर्थिक आधार पर आरक्षण से कितनी बड़ी आबादी को राहत दी जा सकेगी। आर्थिक पिछड़ेपन को अगर अवसरों की कमी के आधार पर परिभाषित किया जाए तो सरकारी क्षेत्र की नौकरियों के लगातार सिकुड़ने जाने और निजी क्षेत्र में अवसरों के उस पैमाने पर इजाफे न होने के कारण महज आर्थिक आरक्षण से कोई बड़ा लक्ष्य तो नहीं हासिल किया जा सकता।
जाहिर है, आरक्षण रोजगार के संकट का कोई इलाज नहीं है। तो, फिर इसके क्या मायने हैं, इसमें दोराय नहीं कि आर्थिक स्थितियां कुछ ऐसी बदली हैं कि हमारी आबादी का ज्यादातर हिस्सा अवसरों से वंचित महसूस करने लगा। खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लगातार टूटते जाने से उन जातियों और समुदायों में भी बेचैनी बढ़ रही है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में खास दबदबा रखती थीं। शायद एक बड़ी वजह यह भी है कि अरसे से आरक्षण की दरकार महसूस न करने वाली जातियां भी अब इसकी मांग करने लगी हैं और आंदोलनरत हैं। ये जातियां अपने-अपने इलाकों में रसूख रखती हैं, इसलिए खासकर मुख्यधारा की बड़ी पार्टियों और लोगों में भी एक तरह की दुविधा देखी जा सकती है। इसी दुविधा काएक नतीजा यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की दलीलों से एक हद तक सहमत होती दिख रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि आरक्षण का वह उद्देश्य आजादी के सात दशकों में क्या पूरा हो चुका है या होने के करीब है, जो सामाजिक न्याय के नजरिए से सोचा गया था।
जाहिर है, आरक्षण रोजगार के संकट का कोई इलाज नहीं है। तो, फिर इसके क्या मायने हैं, इसमें दोराय नहीं कि आर्थिक स्थितियां कुछ ऐसी बदली हैं कि हमारी आबादी का ज्यादातर हिस्सा अवसरों से वंचित महसूस करने लगा। खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लगातार टूटते जाने से उन जातियों और समुदायों में भी बेचैनी बढ़ रही है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में खास दबदबा रखती थीं। शायद एक बड़ी वजह यह भी है कि अरसे से आरक्षण की दरकार महसूस न करने वाली जातियां भी अब इसकी मांग करने लगी हैं और आंदोलनरत हैं। ये जातियां अपने-अपने इलाकों में रसूख रखती हैं, इसलिए खासकर मुख्यधारा की बड़ी पार्टियों और लोगों में भी एक तरह की दुविधा देखी जा सकती है। इसी दुविधा काएक नतीजा यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की दलीलों से एक हद तक सहमत होती दिख रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि आरक्षण का वह उद्देश्य आजादी के सात दशकों में क्या पूरा हो चुका है या होने के करीब है, जो सामाजिक न्याय के नजरिए से सोचा गया था।
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