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सीपीसीटी टेस्ट 15 जनवरी2017 शिफ्ट - 1 (सौरभ कुमार इन्दुरख्या)
created Dec 7th 2018, 17:23 by sourabh indurkhya
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किसी फिल्म के तथ्यों और इतिहास के मामले में अचूक होने की कितनी अपेक्षा की जा सकती है, फिर चाहे दावा किया गया हो यह वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। यह सवाल युवा निर्देशक राजा मेनन की नई फिल्म की सफलता से उठा है। निश्चित ही कुवैत और इराक से डेढ लाख से ज्यादा भारतीयों को वापस स्वदेश लाना एक उल्लेखनीय भारतीय उपलब्धि है और फिर फिल्म बनाए जाने की हकदार है। युद्ध अचानक हुआ था और संकट की मार ज्यादातर निम्न मध्य वर्ग के श्रमिकों पर दिखी, इसलिए कुछ नाटकीयता जायज है। परन्तु क्या इसे इतना मिथकीय बना दिया जाना चाहिए था। फिल्म में बताया गया है कि हर सरकारी एजेंसी ने प्रवासी भारतीयों की दुर्दशा पर लापरवाही दिखाई। इसमें दूतावास भी शमिल है, जिसका स्टाफ या तो भाग खडा हुआ या (जैसा बगदाद में) उसने पूरी तरह कन्नी काट ली। विदेश मंत्री ने भी यह कह दिया कि सरकार अस्थिर है और कभी भी गिर सकती है और केवल नौकरशाही ही कुछ कर सकती है, जो स्थायी हाेती है। यदि भारत वहां फसे भारतीयों को वापस ला सका तो इसके पीछे दो लोग ही थे। इसमें एक तो बेशक हीरो अक्षय कुमार या रंजीत कतियाल था और दूसरेे थे कोहली, विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव, जिसका कार्यालय क्लर्क से भी गया-बीता लगता है जबकि संयुक्त सचिव बहुत ऊंचा पद है, किसी वरिष्ठ राजदूत के समकक्ष कोई बात नहीं। फिल्म सब उबाऊ सरकारी व्यवस्था पर नहीं बनाई जाती, जो कभी-कभी काम करती है। उन्हें संकट, बेबसी, नाटकीयता और अच्छे-बुरे पात्र चाहिए होते हैं, जो मिलकर कहानी बनाते हैं। केवल बॉलीवुड की काल्पनिक नाटकीयता पैदा करनेे के िलिए वास्तविक घटनाओं को नहीं भूलाता, हॉलीवुड तो और बडे पैमाने पर ऐसा करता है। हाल ही में चर्चित, 'एर्गो' और 'अमेरिकन स्पाइपर' इसकेे अच्छे उदाहरण हैं। पहले भी हमने देखा है कि कैसेट कुछ सच्ची घटनाओं को लेकर सफलतापूर्वक भव्य कथाएं रची गई हैं। 'बार्डर' इसका एक और उदाहरण है, जिसे 1971 के युद्ध के दौरान लोंगवाला में हुई जंग पर आधरित माना जाता है। वह बेशक उस युद्ध के इतिहास का उल्लेखनीय अध्याय है लेकिन उसमें एेसा कुछ नहीं था, जो परदे पर दिखाया गया, कम से कम जमीन पर तो नहीं। लोंगेवाला चौकी पर तैनात भारतीय सैनिक के छोटे-से दस्ते ने मैजर कुलदीप सिंह चांदपुरी केे नेतृत्व में मुख्यालय को पकिस्तानी टैंक हमले की सूचना देने के बाद वहां डटे रहकर हमलावरों को अहसास कराया कि उनकी संख्या बहुत ज्यादा है।
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