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created Dec 14th 2018, 10:22 by subodh khare
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मेरी सफलता के पीछे मेरी मां, रिश्तेदार और दोस्तों का खास योगदान है। इन लोगों का मुझे पर ऐसा भरोसा रहा कि कि पढ़ाई जारी रखने के लिए कोई मेरी फीस भर देता था तो कोई किताबों, फॉर्म का इंतजाम कर देता था। कारण यह था कि मेरा जीवन बेहद गरीबी में बीता । पिताजी की साइकिल सुधारने की दुकान थी। उसी की कमाई से हमारा घर चलता था। इसी आमदनी में से कुछ पैसे मेरी पढ़ाई पर खर्च हो जाते थे। पहले ही आमदनी कम और उस पर पढ़ाई का खर्च। इससे हमारे घर की हालत और खराब हो जाती थी। लेकिन, मेरे भीतर पढ़ाई की बहुत ललक थी। पैसे के संघर्ष के बावजूद मेरा पढ़ाई करने का बहुत मन होता था, लेकिन गरीबी के चलते स्कूल की फीस भरना कठिन था।
हाईस्कूल में एडमिशन के लिए हमारे घर के पास एक ही अच्छा स्कूल था। वहां दाखिले के लिए 10 हजार रूपए डोनेशन लगता था। मैं जानता था कि इतने पैसे मेरी मां के पास नहीं थे। इसलिए मैंने मां से कह दिया कि रहने दो एक साल का गैप ले लेता हूं। अगले साल पैसे जुटाकर दाखिला ले लूगा। फिर हुआ यूं कि जो डॉक्टर मेरे पिता का इलाज करते थे, वे हमारी दुकान के सामने से गुजरे तो मेरे दाखिले के बारे में पूछ लिया। मैंने अपनी कठनाई बता दी। यह सुनने के बाद उन्होंने अपनी ओर से 10 हजार रुपए देकर कहा जाओ दाखिला करवा लो। यही वह पल था जिसने मेरे सपनों को हवा दी और नया आत्मविश्वास पैदा किया। अब लगने लगा कि पढ़ाई करके मैं कुछ कर सकता हूँ। दाखिला तो डॉक्टर साहब ने दिया, लेकिन इसके बाद टेंशन यह था कि स्कूल की हर महीने की फीस कैसे दूंगा। मैंने स्कूल के प्रिंसिपल से अनुरोध किया तो उन्होंने मेरी फीस माफ कर दी। 2006 में पिताजी का निधन हो गया। उसके बाद तो जैसे मेरे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा।
पिता बहुत मेहनत करके थोड़ा कुछ कमा लेते थे। 10वीं का परिणाम आया तो जैसे जीवन में नया संचार हो गया। मैंने स्कूल में टाॅप किया था लेकिन, आगे की पढ़ाई के लिए पैसे जुटा पाना मेरे लिए मुश्किल काम था।
हाईस्कूल में एडमिशन के लिए हमारे घर के पास एक ही अच्छा स्कूल था। वहां दाखिले के लिए 10 हजार रूपए डोनेशन लगता था। मैं जानता था कि इतने पैसे मेरी मां के पास नहीं थे। इसलिए मैंने मां से कह दिया कि रहने दो एक साल का गैप ले लेता हूं। अगले साल पैसे जुटाकर दाखिला ले लूगा। फिर हुआ यूं कि जो डॉक्टर मेरे पिता का इलाज करते थे, वे हमारी दुकान के सामने से गुजरे तो मेरे दाखिले के बारे में पूछ लिया। मैंने अपनी कठनाई बता दी। यह सुनने के बाद उन्होंने अपनी ओर से 10 हजार रुपए देकर कहा जाओ दाखिला करवा लो। यही वह पल था जिसने मेरे सपनों को हवा दी और नया आत्मविश्वास पैदा किया। अब लगने लगा कि पढ़ाई करके मैं कुछ कर सकता हूँ। दाखिला तो डॉक्टर साहब ने दिया, लेकिन इसके बाद टेंशन यह था कि स्कूल की हर महीने की फीस कैसे दूंगा। मैंने स्कूल के प्रिंसिपल से अनुरोध किया तो उन्होंने मेरी फीस माफ कर दी। 2006 में पिताजी का निधन हो गया। उसके बाद तो जैसे मेरे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा।
पिता बहुत मेहनत करके थोड़ा कुछ कमा लेते थे। 10वीं का परिणाम आया तो जैसे जीवन में नया संचार हो गया। मैंने स्कूल में टाॅप किया था लेकिन, आगे की पढ़ाई के लिए पैसे जुटा पाना मेरे लिए मुश्किल काम था।
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