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श्री वास्तव टाइपिस्ट दिल्ली
created Mar 7th 2019, 13:30 by VedPrakash59
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				जैसे धृतराष्ट्र ने लौह-निर्मित भीम को अपने अंक में भर कर चूर-चूर कर दिया था- वैसेही प्राय: पार्थिव व्यक्तित्व को खण्ड-खण्ड कर देता है। पर इसे मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ कि रवीन्द्र के प्रत्यक्ष दर्शन ने मेरी कल्पना-प्रतिमा को दीप्त सजीवता दी, उसे कहीं से खण्डित नहीं किया। पर उस समय मन में कुतूहल का भाव ही अधिक था जो जीवन के शैशव का प्रमाण है। दूसरी बार जब उन्हें शान्ति निकेतन में दखने का सुयोग प्राप्त हुआ तब मैं अपना कर्म-क्षेत्र चुन चुकी थी। वे अपनी मिट्टी की कुटी श्यामली में बैठे हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो काली मिट्टी में अपनी उज्ज्वल कल्पना उतारने में लगा आ कोई अद्भुत कर्मा शिल्पी हो। तीसरी बार उन्हें रागमाच पर सूत्रधार की भूमिका में उपस्थित देखा। जीवन की सन्ध्या बेला में शान्ति निकेतन के लिए उन्हें अर्थ-संग्रह में यत्नशील देखकर न कुतूहल आ न प्रसन्नता, केवल एक गम्भीर विषाद की अनुभूति से ह्रदय भर आया। हिरण्यगर्भा धरती वाला हमारा देश भी कैसा विचित्र है जहाँ जीवन-शिल्प की वर्णमाला भी अज्ञात है वहाँ वह साधनों का हिमालय खड़ा कर देता है और जिसकी उँगलियों में सृजन स्वयं उतरकर पुकारता है उसे साधन-शून्य रेगिस्तान में निर्वासित कर जाता है। निर्माण की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि शिल्पी और उपकरणों के बीच में आग्नेय रेखा खींचकर कहा कि कुछ नहीं बनता या सब कुछ बन चुका।     
			
			
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