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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH - Anshul Khare Guddu

created Mar 15th 2019, 04:38 by AnshulKhareGuddu


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लोकसभा चुनाव के आगाज के साथ ही राजनीतिक दलों की भाषा मर्यादा लांघने लगी है। बड़ी पार्टियों के प्रमुख नेता जो मन में रहा है, बोल रहे हैं। दहाड़ रहे हैं। चुनावी मंचों पर आरोप-प्रत्‍यारोप की राजनीति से इस कदम आगे नेता एक-दूसरे पर व्‍यक्तिगत हमले कर रहे हैं। बात चाहे राहुल गांधी की हो, नरेंद्र मोदी की अथवा केजरीवाल अखिलेश या मायावती की हो, कोई पीछे नहीं है। भाषा लगातार राजनीतिक स्‍तर को मापने का एक पैमाना है। इसमें नेता का स्‍तर रिफ्लेक्‍ट होता है। अगर राजनीतिक दल के नेता ये पक्तियां पढ़ रहे हैं, तो उन्‍हें यह समझ लेना चाहिए कि भाषा की मर्यादा आपको बनाती है। और अमर्यादा गिराती ही है। व्‍यक्तिगत हमलों से समर्थक भले ही ताली बजाते हों पर वह मतदाता जो अपनी सोच रखता है, तटस्‍थ है, वह उस नेता की मन में एक तस्‍वीर बनाता है जो लाख अच्‍छी बातें कहने से भी नहीं हटती। नई-नई राजनीति में कदम रखने वाली कांग्रेस की राष्‍ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी ने अहमदाबाद में अपने राजनीतिक कॅरिअर का पहला भाषण दिया। उन्‍होंने सब बातें कहीं, सारे सवाल पूछे पर किसी का नाम नहीं लिया। प्रियंका के भाषण की तुलना तुरंत राहुल गांधी से होने लगी। कहने वालेे यह भी कहते हैं। कि राहुल तो बोल ही नहीं पा रहे थे, अब तो भाषण की शुरुआत वेे चौकीदार से करते हैं। मोदी भी प्रधानमंत्री होकर नियंत्रण खो देते हैं। केजरीवाल, ममता बनर्जी मुख्‍यमंत्री रहते हुए भी वह बोल जाते है, जो बर्दाश्‍त की सीमा से बाहर होता है। राजनीति में अटल बिहारी, इंदिरा गांधी की भाषण शैली लोगों के मस्तिष्‍क में है वे भी दहाड़ते और गरजते थे। पर उसमें संयम नजर आता था। कहतेे हैं, हर नेता राजनीति की राजनीति की शुरुआत प्रियंका जैसी ही करता है लेकिन हमले का जवाब देने में हमलावर हो जाता है। 90 करोड़ मतदाताओं के इस विशाल मुल्‍क में एक भी वोटर ऐसा नहीं होगा जो भाषा के गिरते स्‍तर से खुश हो लेकिन जाति-धर्म संप्रदाय की राजनीति से हम किसी दल के अंधभक्‍त हो गए हैं तो किसी दल के गुलाम। राजनीति की भाषा मतदाताओं से ही सुधर सकती है। तर्क-कुतर्क में खोती जा रही शब्‍दों की परिभाषा बदलने लगी है। यह सबसे बड़ी चिंता है। प्रयास करते रहें सफलता अवश्‍य मिलेगी।

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