Text Practice Mode
(5)HIndi typing Inscript- 408 शब्द (विशाल सिंह )
created Apr 4th 2019, 10:15 by Vishal Register
1
409 words
9 completed
0
Rating visible after 3 or more votes
saving score / loading statistics ...
00:00
भारत में ग्रामीण बैकिंग की समस्याएं और चुनौतियां-
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- भारत गांवों में बसता है, ग्रामीण विकास भारत के समूचे विकास की अनिवार्य शर्त है। आजादी के बाद से हमारे नीति निर्माताओं का यह निरंतर प्रयास रहा है कि भारत में ग्रामीण समृद्धि लाने पर पर्याप्त जोर दिया जाये। आजादी के 70 वर्षों के दौरान सहकारी ऋण संरचना से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के राष्ट्रीकरण, ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी शाखाओं के विस्तार और 1976 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शुरूआत के साथ औपचारिक ग्रामीण संस्थागत संरचना में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई। इसके बाबजूद हमारी ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी आर्थिक रूप से बहिष्कृत और साहूकारों के चंगुल में है जो गंभीर चिंता का विषय है।
आज भी बैंकों से अछूती विश्व की 24 प्रतिशत आबादी और दक्षिण एशिया के दो तिहाई लोग भारत में बसते हैं। गांव की लगभग 31 करोड़ जनसंख्या को औपचारिक बैंकिंग सेवा प्राप्त नहीं हैं। जैसा कि एसएलबीसी की रिपोर्ट कहती है, 30 जून 2016 तक भारत के 6,00,000 में से 4,52,151 गांवों को बैंकिंग सेवाएं प्रदान की गयी हैं। इनमें से 14,976 को बैंक शाखाओँ, 4,16,636 को बीसी (बिजनेस कॉरेसपॉन्डेंट्स) और 20,539 को अन्य माध्यमों जैसे एटीएम, मोबाइल वैन आदि के माध्यम से बैंकिंग से जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त खराब भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचा भी वत्तीय सेवाओं तक पहुंच को प्रभावित करता है। ग्रामीण भारत के बिजलीकरण की वास्तविकता कुछ इस प्रकार हैः
देश की औसत ग्रामीण साक्षरता दर 71 प्रतिशत है लेकिन यह भी सच्चाई है कि एक आम ग्रामीण को बैंक की शाखा तक सफर करने के लिए पूरे एक दिन की मजदूरी का त्याग करना पड़ सकता है जो सुबह 10 बजे खुलकर शाम को पांच बजे बंद हो जाता है। ऋण और बचत खाते की सुविधा बढ़ाने के लिए बैंकों द्वारा गैर सरकारी संगठनों, स्व-सहायता समूहों जैसे मध्यस्थों, बैंकिंग कॉरेसपॉन्डेंट्स और बिजनेस फैसिलिटेटर्स जैसे अर्ध औपचारिक डिलिवरी चैनल्स का प्रयोग किया जाता है। हालांकि ये चैनल्स अपने मौजूदा रूप में सीमित सेवाएं प्रदान करते हैं। और इनमें कई समस्याएं भी हैं।
इसके अतिरिक्त कई बैंक ग्रामीण बाजार को एक आर्थिक मौके की बजाय एक रेगुलेटरी जरूरत के रूप में देखते हैं। इसका कारण यह है कि ग्रामीण परिवारों की आय और व्यय अनियमित होता है। इसलिए इन इलाकों में बैंकों के ऋण गैर-निष्पादक होते हैं। चूंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर रहती है। राजनीतिक पार्टियां लाभ पाने के लिए ऋण छूट भी देती हैं जिससे बैंकों का संकट बढ़ता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- भारत गांवों में बसता है, ग्रामीण विकास भारत के समूचे विकास की अनिवार्य शर्त है। आजादी के बाद से हमारे नीति निर्माताओं का यह निरंतर प्रयास रहा है कि भारत में ग्रामीण समृद्धि लाने पर पर्याप्त जोर दिया जाये। आजादी के 70 वर्षों के दौरान सहकारी ऋण संरचना से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के राष्ट्रीकरण, ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी शाखाओं के विस्तार और 1976 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शुरूआत के साथ औपचारिक ग्रामीण संस्थागत संरचना में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई। इसके बाबजूद हमारी ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी आर्थिक रूप से बहिष्कृत और साहूकारों के चंगुल में है जो गंभीर चिंता का विषय है।
आज भी बैंकों से अछूती विश्व की 24 प्रतिशत आबादी और दक्षिण एशिया के दो तिहाई लोग भारत में बसते हैं। गांव की लगभग 31 करोड़ जनसंख्या को औपचारिक बैंकिंग सेवा प्राप्त नहीं हैं। जैसा कि एसएलबीसी की रिपोर्ट कहती है, 30 जून 2016 तक भारत के 6,00,000 में से 4,52,151 गांवों को बैंकिंग सेवाएं प्रदान की गयी हैं। इनमें से 14,976 को बैंक शाखाओँ, 4,16,636 को बीसी (बिजनेस कॉरेसपॉन्डेंट्स) और 20,539 को अन्य माध्यमों जैसे एटीएम, मोबाइल वैन आदि के माध्यम से बैंकिंग से जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त खराब भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचा भी वत्तीय सेवाओं तक पहुंच को प्रभावित करता है। ग्रामीण भारत के बिजलीकरण की वास्तविकता कुछ इस प्रकार हैः
देश की औसत ग्रामीण साक्षरता दर 71 प्रतिशत है लेकिन यह भी सच्चाई है कि एक आम ग्रामीण को बैंक की शाखा तक सफर करने के लिए पूरे एक दिन की मजदूरी का त्याग करना पड़ सकता है जो सुबह 10 बजे खुलकर शाम को पांच बजे बंद हो जाता है। ऋण और बचत खाते की सुविधा बढ़ाने के लिए बैंकों द्वारा गैर सरकारी संगठनों, स्व-सहायता समूहों जैसे मध्यस्थों, बैंकिंग कॉरेसपॉन्डेंट्स और बिजनेस फैसिलिटेटर्स जैसे अर्ध औपचारिक डिलिवरी चैनल्स का प्रयोग किया जाता है। हालांकि ये चैनल्स अपने मौजूदा रूप में सीमित सेवाएं प्रदान करते हैं। और इनमें कई समस्याएं भी हैं।
इसके अतिरिक्त कई बैंक ग्रामीण बाजार को एक आर्थिक मौके की बजाय एक रेगुलेटरी जरूरत के रूप में देखते हैं। इसका कारण यह है कि ग्रामीण परिवारों की आय और व्यय अनियमित होता है। इसलिए इन इलाकों में बैंकों के ऋण गैर-निष्पादक होते हैं। चूंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर रहती है। राजनीतिक पार्टियां लाभ पाने के लिए ऋण छूट भी देती हैं जिससे बैंकों का संकट बढ़ता है।
