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created Apr 18th 2019, 12:22 by my home
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अप्रैल 1947 में भारत की संविधान सभा ने यह तय किया कि वह आजादी की लड़ाई के दौरान उठी मांग के अनुरूप सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर चुनाव कराएगी। एक तरह से यह औपनिवेशिक काल की सीमित मताधिकार की चुनाव व्यवस्था पर प्रतिक्रिया भी थी। उदाहरण के लिए सन 1935 के चुनाव में देश के कुल वयस्कों के केवल पांचवें हिस्से का नाम मतदाता सूची में शामिल किया गया था। इस सूची में मतदाताओं के नाम समुदाय, पेशे आदि के हिसाब से वर्गीकृत किए गए थे। नवंबर 1946 में संविधान सभा सचिवालय सीएएस ने सार्वभौमिक आधार पर मतदाता सूची तैयार करने का काम शुरू किया। चूंकि इसका सीधा संबंध नागरिकता से था। इसलिए निर्वाचन सूची की तैयारी से जुड़े प्रयास, इस प्रश्न के उत्तर से भी प्रत्यक्षतया संबंधित थे कि वास्तव में असल भारतीय कौन हैं। यह कोशिश थी एक ऐसा नागरिक राष्ट्र बनाने की जहां धर्म या जातीय संदर्भ न दिए जाएं। सीएएस ने जिन नौकरशाहों को निर्देशों के प्रवर्तन का काम सौंपा, उन्होंने सार्वभौमिकता के सिद्घांत को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया। उदाहरण के लिए तत्कालीन बॉम्बे के कलेक्टर ने कहा कि सार्वभौमिकता का तकाजा है कि जिन लोगों के पास कोई स्थायी पता नहीं है, उन्हें भी मतदान करने का अधिकार मिले और ऐसे हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिलना चाहिए जो यह साबित कर सके कि उसका रहवास उस क्षेत्र में है। शरणार्थियों से जुड़े जटिल मुद्दों को भी हल कर लिया गया। इस प्रक्रिया पर किया गया ओर्नित शानी का अध्ययन बताता है कि कैसेट सार्वभौम मतदाता सूची तैयार करने की इस प्रक्रिया ने राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न करने में मदद की और राष्ट्रीयता का बोध पैदा किया। अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद की ओर ध्यान आकर्षित करने का मकसद यह बताना है कि निर्वाचन प्रक्रिया को संचालित करने वाले सरकारी अधिकारियों पर भी काफी कुछ निर्भर करता है। जनता को यह यकीन दिलाना चाहिए कि वे पूरी तरह निष्पक्ष और निरपेक्ष हैं तथा वे चुनाव तथा आदर्श आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने के लिए प्रतिबद्घ हैं। चुनाव प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है और ऐसी आशंका है कि चुनाव की निगरानी करने वाली सर्वोच्च संस्था इस बार वैसी निरपेक्ष नहीं है जैसा कि हम उसे देखते आए हैं। सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने कुछ खास चूक को लेकर जो पत्र लिखा, उसे व्यापक कवरेज मिला। इन चिंताओं को हल किए जाने के संकेत मिल रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही निर्वाचन अधिकारियों की निष्पक्षता में भरोसा बहाल हो जाएगा।
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