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RAJPUT ONLINE TYPING INSTITUTE KESHAV COLONY NAINAGARH ROAD MORENA BY J2R2
created May 9th 2019, 04:17 by RAJPUT
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देश में अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें किसी इल्जाम में पकड़े गए व्यक्ति को सच उगलवाने के नाम पर इतनी यातनाएं दी गईं कि उसकी जान चली गई। जो लोग पुलिस की भयानक यंत्रणाओं के बावजूद किसी तरह बच जाते हैं, वे उम्र भर के लिए शारीरिक तौर पर अक्षम हो जाते हैं, या फिर उनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। यातना का शिकार व्यक्ति सामान्य जिंदगी जी पाने के काबिल नहीं रहता। हिरासत में यातना पर रोक लगाने के लिए कहने को भारत ने आज से करीब डेढ़ दशक पहले संयुक्त राष्ट्र के ‘यातना उन्मूलन’ समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन दीगर वचनबद्धताओं की तरह, यह अभी तक कागजी रजामंदी से ज्यादा कुछ नहीं। पुलिस हिरासत में अपमानित करना, यातनाएं देना और उसके चलते होने वाली मौतों का सिलसिला थमा नहीं हैं, बल्कि यह और भी बढ़ा है। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए दिन इस तरह की खबरें आती रहती हैं।जब भी हिरासत में कहीं कोई मौत होती है, तो कुछ दिन ये बात मीडिया में उठती है। मानवाधिकार आयोग इसे संज्ञान में लेता है। लेकिन दोषियों पर कोइ ठोस कार्यवाही हुए बिना मामला जल्द ही ठंडा पड़ जाता है। एशियाई मानवधिकार केन्द्र की ‘भारत में यातना-2011’ शीर्षक से जारी एक रिपोर्ट, हमें देश में हिरासत में हुई मौतों का सच बतलाती है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2001 से 2010 के बीच यानी बीते दस सालों में भारत में पुलिस हिरासत के दौरान चौहदा हजार दो सौ इकतीस मौतें हुई। इसमें भी उन इलाकों के आंकड़े शामिल नहीं, जहां सशस्त्र बल विशेष जैसे कई कानून लागू हैं। हिरासत में यातना पर रोक लगाने के लिए कहने को सरकार कुछ दिन पहले एक कानून लाई थी, लेकिन इस कानून के कुछ प्रावधान ऐसे है, जो पीडि़तों के अधिकारों की रक्षा की बजाय दोषियों के प्रति नरमी बरतने वाले है। ऐसे में इस कानून से ज्यादा की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। पुलिस सुधार के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को कुछ साल से ज्यादा होने को आए, मगर इस बाबत् कुछ भी नहीं हुआ। सोराबजी समिति ने अपनी रिपोर्ट में, भारतीय पुलिस के अंदर आधारभूत सुधार के लिए कई महत्वुपूर्ण सिफारिशों को लागू करने के लिए संजीदा नहीं। फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं हों या फिर जेल में भयानक उत्पीड़न, ये ऐसे अपराध हैं, जो पुलिस द्वारा अपराधियों से निपटने के नाम पर किए जाते हैं। जबकि, एक लोकतांत्रिक और न्यालयपूर्ण व्यवस्था में सजा देने का काम अदालत का है, न कि पुलिस का। अब वक्ते आ गया है कि फर्जी मुठभेड़, बेकसूरों के उत्पीड़न और हिरासत में हुई मौतों के मामलों में पुलिस की जवाबदेही तय की जाए, तभी जाकर हालात सुधरेगें।
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