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BANSOD TYPING INSITITUTE, GULABARA CHHINIDWARA (M.P.)
created Jul 18th 2019, 10:39 by sachinbansod1609336
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कर्नाटक संकट के लेकर सुप्रीम कोर्ट की तीन-सदस्यीय बेंच का फैसला न तो कोई राह दिखाता है न ही समस्या का निदान करता है बल्कि इस फैसले से दलबदल विरोधी कानून दन्त-विहीन हो गया है और लोलुप जन-प्रतिनिधियों को मनमानी करने की छूट मिलेगी। एक तरफ विधायकों को इस्तीफ के बाद विधानसभा में विश्वास मत के वक्त उपस्थित न रहने की छूट, और वह भी पार्टी द्वारा ‘तीन-लाइनका व्हिप’ जारी होने के बावजूद, दल-बदल को और बढ़ावा देगा और दूसरी ओर अदालत द्वारा यह कहना कि स्पीकर को यह कोर्ट कोई निर्देश नहीं दे सकता, अपने आप में विरोधाभासी हैं। ऐसे दर्जनों उदहारण दिए जा सकते हैं जब इसी कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए फैसले दिए। धन-पद लोलुपता के तांडव के कारण दलबदल विरोधी कानून 1986 में लाया गया और फिर उसे और सख्त बनाते हुए 2003 में संशोधन किया गया। आमतौर पर कोई विधायक या सांसद दसियों साल पार्टी में रहने के बाद टिकट पाकर चुनाव जीतता है। अचानक सत्ता सुख उसके हिसाब से न मिलनेपर या मिलने पर या मिलने की प्रत्याशा में वह इस्तीफा दे देता है यह कहते हुए कि नेतृत्व में दोष है या विचारधारा गलत है। अगले दिन वह मंत्री पद की शपथ लेता है या नई पार्टी से छह मीने में चुनाव जीतता है। क्या संवैधानिक संस्थाओं खासकर सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी नहीं है कि इन विधायकों को सदन में उपस्थिति होने या न होने या दल से इस्तीफा देने या न देने के मौलिक अधिकार की आड़ में छिपने न दें? इस फैसले के बाद कुमारस्वामी सरकारका गिरना तय है। हा, स्पीकर इसकी काट में इस्तीफे को ‘तीन-लाइनके व्हिप’ का उल्लंघन मानतेहुए इसे दलबदल कानून का उल्लंघन करारदे और तब विधानसभा में बहुमत (सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले विधायकों के आधे से एक अधिक) के लिए अपेक्षित समर्थन कम हो जाएगा और सरकारबच जाएगी, लेकिन ऐसा करके स्पीकर भ क्या पद की गरिमा बचा पाएंगे फिलहाल सरकार को चार बोटों की कमी है और सदस्यता खोने का डर 15 में से कम से कम चार विधायकों को उसके समर्थन में आने से रोक सकता है। लेकिन अगर विधायक अपनीयोजना में सफल रहे और कुमारस्वामी सरकार गिर गई तो आने वाले दिनों में हर उस राज्य में,जहां ऐसी संभावना बन सकती है, यह खेल चलता रहेगा। फिर क्यों न दलबदल विरोधी कानून दफन कर दिया जाए?
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