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created Oct 9th 2019, 10:49 by GuruKhare
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किसी भी देश में विकास की असली कसौटी यह होनी चाहिए कि वहां शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की तस्वीर कैसी है। ये तीनों क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं, इसलिए एक के बेहतर या कमतर होने का असर सीधे तौर पर दूसरे पर पड़ता है। जहां तक भारत में सरकारी व्यवस्था के तहत उपलब्ध कराई जाने वाली शिक्षा का सवाल है तो लंबे समय से इस क्षेत्र में अलग-अलग पहलू से सुधार के सवाल उठाए जाते रहे हैं। खासतौर पर शिक्षकों की कमी का मसला पिछले कई दशकों से लगातार चिंताजनक स्तर पर कायम है, लेकिन दूसरे तमाम क्षेत्रों विकास के दावों के बरक्स यह हकीकत है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को कमी को पूरा करने के लिए संतोषजनक कदम भी नहीं उठाए गए। इसमें भी एक बड़ा अब यह उभर कर सामने आया है कि देश भर में बहुत बड़ी तादाद ऐसे सरकारी स्कूलों की है जो बिना किसी प्रधानाध्यापक के संचालित हो रहे हैं। सवाल है कि शिक्षकों की कमी से जूझते स्कूलों में प्रधानाध्यापकों के अभाव के बीच पढ़ाई-लिखाई की कैसी तस्वीर बन रही होगी।
गौरतलब है कि नीति आयोग की ओर से जारी पहले विद्यालय शिक्षा गुणवत्ता सूचक के मुताबिक अलग-अलग राज्यों में ऐसे हजारों स्कूल हैं जहां कोई प्रधानाध्यापक नहीं है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में बिहार है, जहां के करीब अस्सी फीसद स्कूल बिना प्रधानाध्यापक के चल रहे हैं। हालत यह है कि राजधानी दिल्ली तक में करीब एक तिहाई विद्यालय ही प्रधानाध्यापक के साथ चल रहे हैं। गुजरात, केरल तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों की तस्वीर जरूर संतोषजनक है, लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में अगर चालीस, पचास या अस्सी फीसद स्कूलों में प्रधानाध्यापक नहीं हैं, तो समझा जा सकता है कि सरकारें स्कूली शिक्षा में सुधार के प्रति किस हद तक उदासीन हैं। नीति आयोग के ताजा आंकड़े को तैयार करने में खुद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विश्व बैंक ने भी सहयोग किया है। ये आंकड़े सन 2016-17 के हैं, लेकिन आज भी इस तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। हाल में आई एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के शिक्षक संगठनों ने यह आरोप लगाया कि राज्य में एक लाख से ज्यादा प्रधानाध्यापकों के पद ही समाप्त कर दिए हैं। क्या सरकारों को लगता है कि शिक्षकों की कमी की गंभीर समस्या को दूर करने के बजाय प्रधानाध्यापकों की जगह भी खत्म या कम करके शिक्षा की सूरत में बदलाव लाया जा सकता है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर देश में सरकारें शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके और व्यापक स्तर पर शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभियान चलाकर पढ़ाई-लिखाई की सूरत को चमकाने का दावा करती हैं, लेकिन इस तकाजे पर उन्हें यह गौर करना जरूरी नहीं लगता कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के मुताबिक सभी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में एक प्रधानाचार्य या प्रधान अध्यापक और उपप्रधानाचार्य या फिर सहायक प्रधान अध्यापक नियुक्त करना अनिवार्य है।
गौरतलब है कि नीति आयोग की ओर से जारी पहले विद्यालय शिक्षा गुणवत्ता सूचक के मुताबिक अलग-अलग राज्यों में ऐसे हजारों स्कूल हैं जहां कोई प्रधानाध्यापक नहीं है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में बिहार है, जहां के करीब अस्सी फीसद स्कूल बिना प्रधानाध्यापक के चल रहे हैं। हालत यह है कि राजधानी दिल्ली तक में करीब एक तिहाई विद्यालय ही प्रधानाध्यापक के साथ चल रहे हैं। गुजरात, केरल तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों की तस्वीर जरूर संतोषजनक है, लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में अगर चालीस, पचास या अस्सी फीसद स्कूलों में प्रधानाध्यापक नहीं हैं, तो समझा जा सकता है कि सरकारें स्कूली शिक्षा में सुधार के प्रति किस हद तक उदासीन हैं। नीति आयोग के ताजा आंकड़े को तैयार करने में खुद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विश्व बैंक ने भी सहयोग किया है। ये आंकड़े सन 2016-17 के हैं, लेकिन आज भी इस तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। हाल में आई एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के शिक्षक संगठनों ने यह आरोप लगाया कि राज्य में एक लाख से ज्यादा प्रधानाध्यापकों के पद ही समाप्त कर दिए हैं। क्या सरकारों को लगता है कि शिक्षकों की कमी की गंभीर समस्या को दूर करने के बजाय प्रधानाध्यापकों की जगह भी खत्म या कम करके शिक्षा की सूरत में बदलाव लाया जा सकता है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर देश में सरकारें शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके और व्यापक स्तर पर शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभियान चलाकर पढ़ाई-लिखाई की सूरत को चमकाने का दावा करती हैं, लेकिन इस तकाजे पर उन्हें यह गौर करना जरूरी नहीं लगता कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के मुताबिक सभी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में एक प्रधानाचार्य या प्रधान अध्यापक और उपप्रधानाचार्य या फिर सहायक प्रधान अध्यापक नियुक्त करना अनिवार्य है।
