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सॉंई टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्‍यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565

created Dec 10th 2019, 07:28 by Saityping


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विश्‍वास और अंधविश्‍वास के मध्‍य एक हल्‍की सी लकीर होती है। कब हम उस लकीर को पार कर अंधविश्‍वास की अंधेरी राह की ओर बढ़ जाते है, इसका आभास नहीं होता। यह अंधविश्‍वास व्‍यक्ति को उकसाता है। कि वह अपनी सोच के दायरे को इतना संकीर्ण लेकिन मजबूत कर ले कि उसमें उनके आस-पास का हर व्‍यक्ति जकड़ जाए। नवरात्रा के दसवें दिन राजस्‍थान के प्रतापगढ़ में जो कुछ भी परंपरा के नाम पर घटित हुआ, वह विचलित करने वाला है। नेजा जुलूस के दौरान छोटे बच्‍चों को लेटा कर उनके ऊपर एडी रखकर आगे बढ़ता भोपा दरअसल हमारे अंधविश्‍वास का प्रतीक है, जिसको भरोसे में तब्‍दील करने की कोशिश की जाती है। यहां यह मान्‍यता है कि भोपों के ऐसे कृत्‍य से बच्‍चों की बीमारियां ठीक हो जाती है। अहम सवाल यह है कि अाखिर ये अंधश्रद्धा कहां से प्रकट होती है दरअसल यह सब उस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति की परिणति होती है, तो किसी समूह समाज मे घटित होने पर एक जैसा परिणाम देता दिखता है। हालांकि ये मान्‍यताएं सदैव तर्कविहीन होती हो, ऐसा भी नहीं है। परंतु बच्‍चों के ऊपर चलकर जाने से वे जीवन भर अस्‍वस्‍थ नहीं होगे यह मान्‍यता नही है अपितु यह एक ऐसी सत्‍ता नियंत्रण की प्रक्रिया है जहां कोई व्‍यक्ति स्‍वयं सर्वशक्तिमान बन बैठता है और निर्धन असहाय एवं निरक्षर व्‍यक्तियों के समूह के मस्तिष्‍क मे अपनी बात बैठा देता है जिसमें वह उस समूह के लिए ईश्‍वर के समकक्ष हो जाता है।
 इस तरह के भोपों का जाल पूरे भारत में फैला हुआ है और वे अधिकतर समाज के कमजोर वर्ग को अपना शिकार बनाते है। समस्‍या केवल यह नही है समस्‍या की वास्‍तविक जड़ तो यह है कि विज्ञान की ओर कदम-दर कदम बढ़ाता समाज जब इन घटनाओं से दो-चार होता है तो उसका विरोध क्‍यों नहीं करता यहां तक कि शिक्षित समाज और नगरों में भी ऐसे अंधविश्‍वास की जड़े खूब फलती-फूलती नजर आती है अपने दावे को सिद्ध करने के लिए भोपा कहानियां को ऐसा मायाजाल बुनते है कि हर कोई उस अंधविश्‍वास पर विश्‍वास करने लगता है और कब वह विश्‍वास मान्‍यता बन जाती है पता ही नहीं चलता। ऐसा नहीं है कि प्रतापगढ़ के नेजा जुलूस को शिक्षित समाज पिछले अनेक वर्षों से नहीं देखता आया होगा, परंतु क्‍यों किसी ने इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाई अलबत्‍ता आम लोगों के लिए यह परंपरा से कही अधिक उस विश्‍वास की बात है जिस पर प्रश्‍नचिन्‍ह खड़ा करना यानी स्‍वयं को न‍ास्तिक करार करना है परंपराओं के नाम पर बच्‍चों को सहजता से इसलिए शिकार बनाया जाता है। क्‍योंकि वे अपना दर्द बयां नहीं कर सकते बीमारियों से कुप्रथा के लिए चिकित्‍सकों की कमी ज्‍यादा जिम्‍मेदार है। आम लोगों तक सस्‍ती चिकित्‍सा पहुंचेगी तब जाकर ही भोपों का मायाजाल टूटेगा। हो सकता है इसमें समय लगे, पर इसकी शुरूआत ही अंधविश्‍वास पर कुठाराघात की प्रथम पहल होगी है।

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