ron
competition

Exersarea textului

सॉंई टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्‍यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565

Creat pe data de May 16th 2020, 10:52 de către vinitayadav


1


Evaluare

462 (de) cuvinte
18 L-au terminat
00:00
एक तरफ हम दुनिया की सर्वाधिक युवा आबादी का देश बन रहे हैं वहीं ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें युवाओं का भविष्‍य गढ़ने वाले शिक्षण संस्‍थानों की बेहतरी को लेकर सजग नहीं है। केन्‍द्र से लेकर राज्‍य सरकारों तक के इस मामले में एक जैसे हाल है। प्राथमिक स्‍तर की शिक्षा तो पहले ही बेहाल है, उच्‍च शिक्षण संस्‍थान भी सरकारी अनदेखी के शिकार होते जा रहे हैं। राजस्‍थान में तो सरकारी कॉलेजों की हालत यह है कि 92 फीसदी कॉलेजों में प्राचार्य के पद ही खाली है। सरकार ने विधानसभा में स्‍वीकार किया है कि 292 में से महज 25 सरकारी कॉलेजों में ही प्राचार्य हैं। शिक्षकों की कमी का तो अंदाज ही लगाया जा सकता है। पिछले दिनों लोकसभा में मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भी एक सवाल के जवाब में जानकारी दी थी कि देश भर के विभिन्‍न केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालयों में शैक्षाणिक और अशैक्षाणिक संवर्ग के 19 हजार पद खाली पड़े हैं। इनमें शिक्षकों के तो करीब एक तिहाई पद खाली है। चौंकाने वाली बात यह है कि देश के केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालयों में छह हजार से ज्‍यादा पदों के लिए शुरू की गई भर्ती में सिर्फ 934 पदों को ही भरा जा सका हैं।  
यह तो कोरी बानगी है। केंद्रीय विश्‍वविद्यालय ही नहीं, विभिन्‍न राज्‍यों के विश्‍वविद्यालयों-कॉलेजों में बड़ी संख्‍या में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। ऐसे  भी विश्‍वविद्यालयों की संख्‍या कम नहीं, जहां कुलपति पद ही रिक्‍त हैं। बड़ी संख्‍या में विश्‍वविद्यालय अंशकालिक शिक्षकों के भरोसे ही हैं। यह तब है जबकि विश्‍वविद्यालय अनुदाय आयोग कई बार चेता चुका हैं। कि शिक्षकों के रिक्‍त पद नहीं भरने वाले विश्‍वविद्यालयों का अनुदान रोक दिया जाएगा। शिक्षा की गुणवत्‍ता की दुहाई देने वाली हमारी सरकारें बड़ी-बड़ी बातें करती हैं, लेकिन बेहतर शिक्षा के लिए जो प्रयास किए जाने चाहिए, वे मन लगाकर होते ही नहीं। इसीलिए स्‍कूली शिक्षा से लेकर उच्‍च शिक्षण संस्‍थान तक कारोबारियों के कब्‍जे में आते जा रहे हैं। इसकी बड़ी वजह विश्‍वविद्यालयों की स्‍वायत्‍तता पर लंबे समय से प्रहार किया जाना भी रहा है। कुलपतियों की राजनीतिक आधार पर नियुक्तियों ने विश्‍वविद्यालयों की दशा बिगाड़ने का ही काम किया है। यही वजह है कि 2020 के लिए जारी दुनिया के शीर्ष 300 विश्‍वविद्यालयों की सूची में भारत के एक भी विश्‍वविद्यालय का नाम नहीं है। ऐसा 2012 के बाद पहली बार हुआ है। शिक्षकों की कमी का यह संकट कोई रातोंरात पैदा हुआ हो, ऐसा नहीं हैं। दरअसल, शैक्षणिक अशैक्षाणिक पद रिक्‍त नहीं रहें, यह सुनिश्चित करने का काम तो सरकारें कर रही हैं, और ही विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग। शिक्षकों की भर्ती में पारदर्शिता के लिए संघ लोक सेवा आयोग जैसा निकाय बनाने की सिफारिश भी धूल फांक रही हैं। हमें समझना होगा कि शिक्षा में गुणवत्‍ता नहीं होने का बड़ा कारण शिक्षकों की कमी ही हैं।  

Se încarcă scorul / statisticile...