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created Tuesday February 23, 07:28 by renuka masram
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स्त्री उल्लास है, जीवन है जीवन-राग है और यदि इसी क्रम में उसे नियामक शक्ति भी कहकर पुकारा जाता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके साथ ही यह बात भी सही है कि आधुनिकता की अंध बयार में स्त्री बाजार और महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में एक विकल्प मात्र बनकर रह जाती है। इसलिए आज यह जरूरी है कि वह स्वयं को सहेज कर रखे। स्त्री अपने आत्मीयजन के लिए जीना-मरना जानती है, यही कारण है कि उसकी बलि चढ़ जाने की भावना को दैवीय माना गया, परन्तु उसे अब यह भी जानना होगा कि उसे केवल अपने हित के लिए ही नहीं, वरन् वृहत्तर के लिए भी कुछ करना होगा। यह ठीक है कि स्त्री मन से कोमल है। इसलिए उसे अधिक सहेजन और प्रेम की आवश्यकता है, परन्तु अपनी चाहनाओं की आड़ में वह अपने आत्मबल को ही भुला बैठे तो पीडि़त बन जाती है। यों आधुनिकाएं हर क्षेत्र में अपनी बौद्धिक और रचनात्मक उपस्थिति दे रही हैं, परन्तु इस दौड़ में भी महिला स्वयं को ही भुला बैठी है। वह कोमल है, सिद्धहस्ता है, ममत्व की प्रतिमूर्ति है, पर पुरुष के समान होने की चाहना में वह अपने नैसर्गिक गुणों से दूर हो रही है। आधुनिकाएं यदि स्वयं के प्रति जागरूक होकर अपने नैसर्गिक गुणों की ओर लौटें, तो समाज में आ रहे बहुत से विचलन दूर हो सकते हैं। सौन्दर्य के आधार पर मूल्यवान और प्रासंगिक बने रहने की चाहना मूल्यहीनता की जननी है। महिला अपने विचारों को वाणी जरूर दे, पर उसकी जिह्वा से रागिनी और हाथों से वीणा का त्याग नहीं होना चाहिए। वह बुराइयों और अत्याचार के खिलाफ खड़ी हो, लेकिन किसी के हाथों का खिलौना न बने। हर क्षेत्र में सक्रियता उसकी जरूरत हो सकती है, पर उसे यह ध्यान रखना होगा कि बाजार उस पर हावी न हो जाए। वह उड़ना जानती है, पर उसे यह भी जानना होगा कि उस उड़ान में कितना जोखिम है। उसे सिरजना होगा और उस सर्जन में किसी कांक्षा को नहीं, वरन् स्वयं को ही फिर-फिर रचना होगा।
