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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Nov 24th 2022, 04:08 by Sai computer typing
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मोरबी पुल हादसे को बड़ी त्रासदी करार देते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को गुजरात उच्च न्यायालय से कहां है कि वह पुल ढहने की घटना से संबधित जांच व अन्य पहलुओं की समय-समय पर निगरानी करें। पुल गिरने की घटना की स्वतंत्र जांच और मुतकों के परिजनों को उचित मुआवजे की मांग को लेकर दायर दो अलग-अलग याचिकाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट का यह कहना था कि चूंकि गुजरात हाईकोर्ट ने इस प्रकरण में स्वत: संज्ञान लिया है, इसलिए यह मांग भी हाईकोर्ट के सम्मुख रखी जा सकती है।
देश की सबसे बड़ी अदालत जब यह भी कहती हैं कि हाईकोर्ट को नियमित अंतराल पर प्रकरण की सुनवाई करते रहना चाहिए, तो एक तरह से ऐसे मामलों की सुनवाई में होने वाली देरी की तरफ भी ध्यान दिलाती है। देखा जाए तो इस तरह के हादसों के लिए जिम्मेदारों को शीघ्र सुनवाई कर सजा दी जानी चाहिए, ताकि भविष्य में लापवाही किसी को यूं ही न न निगल सके। मोरबी कोई अकेला मामला नहीं है। जानलेवा लापरवाही के कारण देश पहले भी कई छोटे-बड़े हादसे झेल चुका है। भारी भीड़ के कारण मंदिरों, रेलवे स्टेशनों व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर भगदड की घटनाएं अक्सर होती रहती है। जांच के नाम पर खानापूर्ति भी होती है और मामले सर्वोच्च अदालत तक भी पहुंचते है। लेकिन, समय बीतने के साथ-साथ सब कुछ दाखिल दफ्तर होता दिखता है। हादसे में जान गंवाने वालों के परिजन इसे विधि का विधान समझकर स्वीकार कर लेते है। जांच कमेटी की रिपोर्ट आती है, लेकिन अधिकांश मामलों में लीपापोती के अलावा कुछ नजर नहीं आता। सवाल यह है कि मोरबी में फिटनेस की जांच के बिना पुल खोलने के आदेश किसने दिए? सौ लोगों की क्षमता वाले पुल पर एक बार में चार सौ लोगों को जाने की इजाजत किसने दी? बड़ा सवाल यह है कि किसी हादसे में 100-150 लोग मर जाएं तो जांच तीन महीने में क्यों नहीं पूरी हो। जांच कमेटी किसी भी स्तर की हो, उसे लगातार काम क्यों नहीं करना चाहिए।
तीन महीने के भीतर रिपोर्ट आ जाए मामला दर्ज हो और साल भर के भीतर दोषियों को सजा मिल जाए। तब तो ऐसी जांच का कोई फायदा निकलेगा। ऐसे हादसों की त्वरित जांच और जल्दी सुनवाई को लेकर अनेक बार संसद से लेकर सड़क तक मांग उठ चुकी है। लोगों को लगता है कि ऐसे मामलों में दोषी लोग इतने ताकतवर होते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता। दोषी कितने भी प्रभावशाली हो सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए।
देश की सबसे बड़ी अदालत जब यह भी कहती हैं कि हाईकोर्ट को नियमित अंतराल पर प्रकरण की सुनवाई करते रहना चाहिए, तो एक तरह से ऐसे मामलों की सुनवाई में होने वाली देरी की तरफ भी ध्यान दिलाती है। देखा जाए तो इस तरह के हादसों के लिए जिम्मेदारों को शीघ्र सुनवाई कर सजा दी जानी चाहिए, ताकि भविष्य में लापवाही किसी को यूं ही न न निगल सके। मोरबी कोई अकेला मामला नहीं है। जानलेवा लापरवाही के कारण देश पहले भी कई छोटे-बड़े हादसे झेल चुका है। भारी भीड़ के कारण मंदिरों, रेलवे स्टेशनों व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर भगदड की घटनाएं अक्सर होती रहती है। जांच के नाम पर खानापूर्ति भी होती है और मामले सर्वोच्च अदालत तक भी पहुंचते है। लेकिन, समय बीतने के साथ-साथ सब कुछ दाखिल दफ्तर होता दिखता है। हादसे में जान गंवाने वालों के परिजन इसे विधि का विधान समझकर स्वीकार कर लेते है। जांच कमेटी की रिपोर्ट आती है, लेकिन अधिकांश मामलों में लीपापोती के अलावा कुछ नजर नहीं आता। सवाल यह है कि मोरबी में फिटनेस की जांच के बिना पुल खोलने के आदेश किसने दिए? सौ लोगों की क्षमता वाले पुल पर एक बार में चार सौ लोगों को जाने की इजाजत किसने दी? बड़ा सवाल यह है कि किसी हादसे में 100-150 लोग मर जाएं तो जांच तीन महीने में क्यों नहीं पूरी हो। जांच कमेटी किसी भी स्तर की हो, उसे लगातार काम क्यों नहीं करना चाहिए।
तीन महीने के भीतर रिपोर्ट आ जाए मामला दर्ज हो और साल भर के भीतर दोषियों को सजा मिल जाए। तब तो ऐसी जांच का कोई फायदा निकलेगा। ऐसे हादसों की त्वरित जांच और जल्दी सुनवाई को लेकर अनेक बार संसद से लेकर सड़क तक मांग उठ चुकी है। लोगों को लगता है कि ऐसे मामलों में दोषी लोग इतने ताकतवर होते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता। दोषी कितने भी प्रभावशाली हो सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए।
