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बंसोड कम्प्यूटर टायपिंग इन्स्टीट्यूट छिन्दवाड़ा म0प्र0 प्रवेश प्रारंभ (सीपीसीटी, एवं TALLY ) MOB. NO. 8982805777
created Nov 20th, 11:08 by shilpa ghorke
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आज के मनुष्य को आर्थिक मनुष्य कह दें तो अतिश्योक्ति न होगी। धन का महत्व इतना बढ़ गया है कि वह शाश्वत मानवीय मूल्यों को भी प्रभावित करने लगा है। धन प्राप्त करने की दौड़ यों तो पुराने समय से चली आ रही है किन्तु मानवीय भावनाएं धन अधिक आदर पाती रही है। आज स्थिति बदल गई है। मनुष्य धन के पीछे पागल हो गया है और उसके प्रत्येक कार्य एवं व्यवहार में आर्थिक दृष्टिाकोण प्रमुख हो गया है। आर्थिक दृष्टिकोण बनते ही महत्व भावना का नहीं रहता, हिसाब का हो जाता है। मनुष्य पारस्परिक समझौतों से हटकर विधि एवं व्यवस्था का आश्रय लेने लगता है। समान विभाजन की भावना उत्पन्न होती है और उस विभाजन के लिये एक तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जिससे न्याय की आशा की जाती है। यह तीसरा व्यक्ति होता है शासन। भारत में स्वाधीनता के बाद बड़ी-बड़ी योजनाओं का निर्माण हुआ। शासन पद्धति को गांधीजी के आदर्शो पर चलाने का प्रयत्न किया गया किन्तु उन योजनाओं के द्वारा जो प्रगति हमने की वह पक्षीय प्रगति सिद्ध हुई। आर्थिक रूप से तो हम समृद्धि की ओर बढ़ रहे है। किन्तु नैतिक दृष्टि से हमारा पतन हो रहा है। व्यक्ति-व्यक्ति के पारस्परिक संबंधो में भ्रष्टाचार घुस आया है और इसको विष समाज की नाड़ी में फैलता जा रहा है। व्यक्ति इस स्थिति के लिये दोषी नहीं है। दोषी है वह व्यवस्था, जो व्यक्ति से अधिक महत्व धन को देती है। धन जितना बड़ा है, धन का लोभ उससे अधिक बढ़ा है फलस्वरूप हर तरह की बेईमानी से धन-संग्रह की प्रवृति को बल मिला है। भ्रष्टाचार को अर्थ-व्यवस्था और शासन से मिटाने के लिये दो मार्ग हो सकते है। या तो शासन की सर्वोच्च शक्तियॉं भ्रष्टाचार के कारणों का पता लगाकर उसके मूल पर कुठाराघात करें या भ्रष्टाचार की शिकार जनता अपने सम्पूर्ण नैतिक ओर साहस से भ्रष्टाचार को मिटाने का प्रयत्न करें। ऐसे प्रयत्न जनता के हित में होते हैं। अत: उन्हें अपनाने के लिये वह प्रयत्नशील रहती है।
