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प्रज्ञा टाईपिंग
created Saturday January 11, 04:58 by PragyaComputerTypingTikamgarh
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ज्ञान ही एकमात्र वह प्रकाश है, जिसके आधार पर जीव को अपने वास्तविक स्वरूप की, हित-अनहितकी, लाभ-हानि की, बुद्धिमत्ता एवं मूर्खता की वास्तविक जानकारी हो सकती है और वह उन तुच्छ बातों की उपेक्षा करके महान हितसाधान में संलग्न हो सकता है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए सबसे प्रथम साधन है - स्वाध्याय। सद्ग्रंथों के माध्यम से सत्पुरुषों की, मनीषियों और ऋषियों की आत्मा हर घड़ी सत्संग करने को प्रस्तुत रहती है। जो महापुरुष स्वर्गवासी हो चुके हैं, दूरस्थ हैं या जिनके पास समय का अभाव रहता है, उनसे प्रत्यक्ष सत्संग नहीं हो सकता। ग्रथों द्वारा उनका सत्संग, कितनी ही देर तक, किसी भी समय किया जा सकता है। सभी सद्ग्रंथ, जिनमें जीवन की समस्याओं को सतोगुणी दृष्टिकोण के साथ सुलझाया गया है, शास्त्र हैं। वे संस्कृत में ही हों, यह कोई आवश्यक नहीं । ऐसा भी नहीं कि जो कुछ हैं, संस्कृत शास्त्र ही हैं। शास्त्र का अर्थ है - सत्साहित्य। वे पुस्तकें जो आत्मा को सत् की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा देती हैं; ऐसे ग्रंथों का अध्ययन शास्त्राध्ययन कहलाता है। उन्हीं को स्वाध्याय के निमित्त पढ़ने का मनीषियों ने आदेश किया है। महाभारत में लिखा हैं- "ज्ञान के समान नेत्र नहीं, सत्य के समान तप नहीं, राग के समान दु:ख नहीं और त्याग के समान कोई सुख नहीं।" सच्चा मनुष्य वही है जिसके पास विद्यारूपी धन है। बिना ज्ञान के व्यक्ति अन्य जानवरों के समान निरा पशु ही है। विद्या से ही मनुष्य जीवन सार्थक होता है, क्योंकि वही मनुष्य के आत्मविकास का साधन है। संसार में विद्या से बढ़कर कोई मित्र और अविद्या से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है। विद्या के कारण ही मनुष्य समाज, परिवार और जीवन के आनंद, उल्लास, सम्मान आदि का सुख लूटता है और अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। अविद्या या अज्ञान ही सब असफलताओं की जड़ है। जन्म से सब मनुष्य थोड़े-बहुत अंतर के साथ बराबर से होते हैं, पर किसी विशेष क्षेत्र का ज्ञान, शिक्षण और विशेष अध्ययन ही उन्हें दूसरों से आगे बढ़ाता है।
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