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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Monday July 14, 10:05 by lucky shrivatri
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सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम ने उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को अभ्यर्थियों की सामान्य जांच के अलावा इंटरव्यू से भी जोड़ दिया है। गत दिनों हाईकोर्ट जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर नकदी प्रकरण और जस्टिस शेखर यादव के विवादित बयानों ने लोगों के बीच न्यायपालिका के प्रति विश्वास को थोड़ा ड़गमगा दिया है। जवाब में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया बदली है। अब हाईकोर्ट कॉलेजियम से आए नामों की सामान्य जांच के अलावा सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम अभ्यर्थियों के साक्षात्कार भी ले रहा है।
यह कदम भ्रष्टाचार और न्यायपालिका को लेकर उठने वाले विवादों की रोकथाम की दिशा में सार्थक प्रयास कहा जा सकता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इतना भर ही काफी होगा? क्या भारत को न्यायिक नियुक्तियों को लेकर वैश्विक माॅडल को अपनाने की जरूरत नहीं होना चाहिए? हमारे देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के तहत होती है, जो सुप्रीम कोर्ट के 1193 और 1998 के फैसलों से विकसित हुई। यह प्रणाली भी पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर यदा-कदा आलोचना का शिकार होती रही है। अमरीका में संघीय न्यायाधीशों के नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा नामांकन और सीनेट की मंजूरी से होती है, जिसमें सार्वजनिक सुनवाई और गहन जांच शामिल होती है। हालांकि इस प्रणाली में भी राजनीतिक दखल की आशंका बनी रहती है। यूरोप में, विशेपकर यूनाइटेड किंगडम में, स्वतंत्र नयायिक नियुक्ति आयोग जजों का चयन करता है, जिसमें योग्यता, अनुभव और चरित्र की कठोर जांच होती है। भारत में वर्ष 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना 99वें संविधान संशोधन के तहत की गई थी, जिसमें सरकार और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाने का प्रयार था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में इसे असंवैधानिक घोषित कर काॅलेजियम प्रणाली को ही बरकरार रखा। यह कहा जा रहा था कि संरचना में हस्तक्षेप की आशंका रहने से ऐसा आयोग नयायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकता था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की जरूरत है।
चयन प्रक्रिया को सार्वजनिक करने, अभ्यर्थियों की योग्यता और पृष्ठभूमि की जांच के स्पष्ट मानदंड तो हो ही, एक स्वतंत्र निगरानी समिति गठित की जाए, जो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यवहार की शिकायतों की जांच करे। निचली अदालतों ये लेकर हाईकोर्ट तक भर्ती प्रक्रिया में योग्यता- आधारित प्रतियोगी परीक्षा और साक्षात्कार शामिल करने होंगे। मोटे तौर पर भारत में जजों के चयन की ऐसी प्रणाली की जरूरत है, जो स्वतंत्रता, पारदर्शिता और जवाबदेही का संतुलन बनाने का काम करे। इससे न केवल त्वरित और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित होगा बल्कि न्यायपालिका को जनता की आस्था का प्रतीक भी बनाया जा सकेगा।
यह कदम भ्रष्टाचार और न्यायपालिका को लेकर उठने वाले विवादों की रोकथाम की दिशा में सार्थक प्रयास कहा जा सकता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इतना भर ही काफी होगा? क्या भारत को न्यायिक नियुक्तियों को लेकर वैश्विक माॅडल को अपनाने की जरूरत नहीं होना चाहिए? हमारे देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के तहत होती है, जो सुप्रीम कोर्ट के 1193 और 1998 के फैसलों से विकसित हुई। यह प्रणाली भी पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर यदा-कदा आलोचना का शिकार होती रही है। अमरीका में संघीय न्यायाधीशों के नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा नामांकन और सीनेट की मंजूरी से होती है, जिसमें सार्वजनिक सुनवाई और गहन जांच शामिल होती है। हालांकि इस प्रणाली में भी राजनीतिक दखल की आशंका बनी रहती है। यूरोप में, विशेपकर यूनाइटेड किंगडम में, स्वतंत्र नयायिक नियुक्ति आयोग जजों का चयन करता है, जिसमें योग्यता, अनुभव और चरित्र की कठोर जांच होती है। भारत में वर्ष 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना 99वें संविधान संशोधन के तहत की गई थी, जिसमें सरकार और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाने का प्रयार था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में इसे असंवैधानिक घोषित कर काॅलेजियम प्रणाली को ही बरकरार रखा। यह कहा जा रहा था कि संरचना में हस्तक्षेप की आशंका रहने से ऐसा आयोग नयायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकता था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की जरूरत है।
चयन प्रक्रिया को सार्वजनिक करने, अभ्यर्थियों की योग्यता और पृष्ठभूमि की जांच के स्पष्ट मानदंड तो हो ही, एक स्वतंत्र निगरानी समिति गठित की जाए, जो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यवहार की शिकायतों की जांच करे। निचली अदालतों ये लेकर हाईकोर्ट तक भर्ती प्रक्रिया में योग्यता- आधारित प्रतियोगी परीक्षा और साक्षात्कार शामिल करने होंगे। मोटे तौर पर भारत में जजों के चयन की ऐसी प्रणाली की जरूरत है, जो स्वतंत्रता, पारदर्शिता और जवाबदेही का संतुलन बनाने का काम करे। इससे न केवल त्वरित और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित होगा बल्कि न्यायपालिका को जनता की आस्था का प्रतीक भी बनाया जा सकेगा।
