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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा (म0प्र0) संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

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कोई व्‍यक्ति अपराध करता है तो उसे जेल जाना पड़ता है। यह सामान्‍य प्रक्रिया है लेकिन जब यह जानकारी मिले कि भारतीय जेलों में 74 फीसदी कैदी ऐसे बंद है, जिनका अपराध अभी साबित ही नहीं हुआ तो चिंता की बात हो जाती है। ऐसे कैदी कोई साल दो साल से नहीं, बल्कि लंबे समय से जेल में बंदी बनाए हुए है। हैैरत की बात यह भी कि इनमें से भी बंदी खासी तादाद में हैं, जिनके अपराध की मूल सजा की अवधि तक‍ बीत चुकी है। इतना ही नहीं सजा पूरी होने के बाद भी विविध कारणों से जेल से रिहा हो पाने वाले अनेक उदाहरण है। ऐसे कैदी भी बहुतायत है, जिन पर जमानती अपराध दर्ज हैं फिर भी वे लंबे समय से जेल में है।  
देश में जेलों और उनमें बंद कैदियों से जुड़े ये आंकडे हाल ही सुप्रीम कोर्ट की और से जारी नालसार यूनिवर्सिटी के स्‍क्‍वायर सर्कल क्‍लीनिक की रिपोर्ट में सामने आए है। ये आंकड़े यो तो समय-समय पर सामने आते रहते है लेकिन चिंताजनक तथ्‍य यह है कि जेलों में बिना सजा पाए बंद होने वाले कैदियों का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा। इन सभी श्रेणियों के कैदियों के कारण  हालत यह है कि देश  की सभी जेले खचाखच भरी है। यानी क्षमता से भी ज्‍यादा। स्‍वाभाविक रूप से कैदियों की यह स्थिति उनके साथ अन्‍याय ही कहा जाएगा। उन कैदियों के साथ तो यह क्रूरता की पराकाष्‍ठा ही होगी, जिन्‍हें सुनवाई के बाद पता लगेगा‍ कि उन्‍होंने अपराध किया ही नहीं और बेवजाह ही जेले में थे। आंकड़े इसलिए भी ज्‍यादा डराने वाले है क्‍योंकि सब कुछ देश की शीर्ष अदालत के संज्ञान में होने के बावजूद कैदियों की यह स्थिति है। इसके लिए  यों तो कई कारण जिम्‍मेेदार है लेकिन निचली अदालतों की जमानत देने में हिचक भी एक हद तक जिम्‍मेदार है। सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में कई बार निचली अदालतों को निर्देश भी दे चुका है। फिर भी ये अदालते जमानती और कम गंभीर अपराधों में भी हक के अनुरूप जमानत देने का निर्णय सामान्‍य तौर पर ऊपरी अदालतों पर छोड़ देती है। ऐसे में जो मामला निचले स्‍तर में जो समय निपट सकता था वह आगे के लिए टल जाता है। पूरी प्रक्रिया में जो समय लगता है उसकी वजह से भी बंदियों की  रिहाई में विलंब होता है।     

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